Tuesday, June 1, 2010

भीड़

आधुनिक पर्यावरण-मनोविज्ञान का एक बड़ा भाग पर्यावरण की उन भौतिक विशेषताओं के अध्ययन से जुड़ा है जो मनुष्य के सामान्य व्यवहारों को बाधित करती है। भीड़, शोर, उच्च तापक्रम, जल तथा वायु प्रदूषण आदि का मनुष्य के स्वाभाव तथा अभियोजनात्मक व्यवहारों पर प्रभाव अध्ययन किया गया है। भारतीय परिवेश में जनसंख्या के दबाव तथा ऊर्जा की समस्या को ध्यान में रखकर कई प्रश्न उपस्थिति होते हैं। भारतीय मनोवैज्ञानिकों ने भीड़ की अनुभूति और उसके मनोवैज्ञानिक परिणामों का विशेष रूप में अध्ययन किया है। गाँव से शहर में पलायन के कारण शहरों में भीड़ बढ़ती जा रही है और इसके फलस्वरूप न केवल भौतिक पर्यावरण बल्कि मनुष्य के स्वास्थ्य, सामाजिक कार्य-कलाप और कार्यकुशलता आदि भी नकारात्मक ढंग से प्रभावित हो रही है। भीड़ जनसंख्या के घनत्व से जुड़ी है परन्तु भीड़ की अनुभूति के रूप में उसका एक मनोवैज्ञानिक पहलू भी है। जिसको ध्यान में रखे बिना भीड़ के प्राभावों का समुचित विश्लेषण नहीं किया जा सकता। प्रयोगशाला और वास्तविक जीवन में हुए अनेक अध्ययन यह दिखाते हैं कि भीड़ की अनुभूति कार्य निष्पादन, सामाजिक अंतःक्रिया, मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य आदि पर ऋणात्मक प्रभाव डालती है। मनुष्य की आवश्यकताओं का स्वरूप तथा प्रतिद्वन्द्विता-सहिष्णुता की प्रवृत्ति भीड़ के प्रभाव को परिसीमित करते हैं। स्मरणीय है कि जनसंख्या के घनत्व से निश्चित स्थान में रहने वाले व्यक्तियों की संख्या का बोध होता है और भीड़ स्थान के अभाव की अनुभूति की दशा है। भीड़ कि अनुभूति घर बाहर प्राथमिक तथा द्वितीयक पर्यावरण में अलग-अलग पायी जाती है।
भीड़ के अध्ययन प्रयोगशाला और वास्तविक जीवन दोनों तरह की दशाओं में हुए हैं। प्रयोगशाला में किए गए अध्ययनों में सामान्यीकरण की संभावना अपेक्षाकृत सीमित रहती है। साथ ही भीड़ की अनुभूति भी विभिन्न स्थानों पर एक जैसी नहीं होती। अध्ययनों के परिणामों से यह स्पष्ट होता है कि अनुभूति न केवल परिस्थिति विशिष्ट होती है बल्कि बची जा सकनेवाली दशाओं में भीड़ अपरिहार्य दशाओं की तुलना में अधिक होती है। भीड़ और शोर के कारण जटिल कार्यों का निष्पादन घट जाता है परन्तु जब व्यक्ति इन प्रतिबलों से अनुकूलित रहता है तो भीड़ का ऋणात्मक प्रभाव घट जाता है। घर के अन्दर के पर्यावरण का प्रत्यक्षीकरण शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में अलग-अलग पाया गया है। भीड़ पर हुए अध्ययनों के परिणामों का सामान्यीकरण वस्तुतः एक चुनौती है क्योंकि वास्तविक जीवन की परिस्थितियाँ भिन्न होती हैं। एक ही व्यक्ति अपनी दैनिक जीवनचर्या में भिन्न-भिन्न प्रकार की और भिन्न-भिन्न अनिश्चितता की मात्रा वाली भीड़ की स्थितियों से गुजरता है। सम्भवतः इन परिस्थितियों के अनुभव के आधार पर व्यक्ति एक अनुकूल स्तर विकसित करता है और उसी के आधार पर प्रतिक्रिया करता है।
भीड़ का मानव व्यवहार पर नाकारात्मक परिणाम क्यों पड़ता है ? इसे समझने के लिए कई सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है। इनमें व्यवहार सीमा, नियन्त्रण तथा उद्दोलन के सिद्धान्त प्रमुख हैं। इनमें भीड़ के प्रभावों की व्याख्या के लिए अलग-अलग मध्यवर्ती परिवर्त्यों की संकल्पना की गयी है उनकी अध्ययनों द्वारा आंशिक पुष्टि हुई है। भीड़ और स्वास्थ्य के बीच सम्बन्ध उपलब्ध सामाजिक समर्थन की मात्रा पर निर्भर करता है। भीड़ और तापक्रम के प्रभाव भी संज्ञानात्मक कारकों की मध्यवर्ती भूमिका को स्पष्ट करते हैं। घरों में जनसंख्या के घनत्व का स्वास्थ्य, बच्चों के साथ व्यवहार, सांवेदिक समर्थन आदि पर ऋणात्मक प्रभाव पाया गया है परन्तु सामाजिक आर्थिक तथा जनांकिक कारकों को नियन्त्रित करने पर यह प्रभाव घट जाता है। स्मरणीय है कि कोई भी परिवर्त्य स्थायी रूप से मध्यवर्ती चर नहीं हो सकता क्योंकि प्रत्येक अन्तः क्रिया गत्यात्मक होती है।
पर्यावरण और उसकी समस्याओं पर सार्थक विचार सांस्कृतिक कारकों के परिप्रेक्ष्य में ही संभंव है। विशेषरूप से उच्च जनसंख्या वृद्धि, सीमित संसाधन, गरीबी, समाज की ग्रामीण एवं कृषि प्रधान पृष्ठभूमि सामाजिक परिवर्तन के लिए विकास योजना व विभिन्न सांस्कृतिक परम्पराएँ हमारे लिए विचारणीय हैं। अन्तर्वैयक्तिक सम्बन्धों, परिवार और समुदाय को प्रधानता देने वाले भारतीय समाज में, जहाँ व्यक्ति नहीं बल्कि परिवार समाज की मूल ईकाई है, पर्यावरणीय प्रतिबलों का प्रभाव पश्चिमी देशों जैसा नहीं होगा। भारतीय परिस्थिति इन अर्थ में भी भिन्न है यहाँ पर आने वाले प्रतिबल विविध प्रकार के हैं। वे एक-दूसरे से जुड़े होते हैं तथा इनके ऊपर नियंत्रण आसानी से नहीं किया जा सकता। आधुनिक भारतीय अध्ययन सम्प्रत्यात्मक रूप से अधिकांशतः पाश्चात विचारधारा से ही प्रभावित रहें हैं और भारतीय सामाजिक यथार्थ के प्रति कम संवेदनशील रहे हैं। वस्तुतः भीड़ की अनुभूति भारतीय परिवेश में जहाँ लोगों का जीवन विभिन्न संस्कारों, रीति-रिवाजों, रस्मों, नाते-रिश्ते की भागीदारी से ओतप्रोत रहे हैं भिन्न होती है। अभी भी एकांकी परिवार की संख्या में वृद्धि होने के बावजूद संयुक्त परिवार किसी-न-किसी रूप से बना हुआ है।
ऐसी स्थिति में एक अलग दृष्टिकोण अपेक्षित है। बहुत सारे अवसरों पर भीड़ की उपस्थिति वांछनीय मानी जाती है और व्यक्ति को इसमें गौरव की अनुभूति होती हैं। साथ ही, सम्बन्धों को स्थापित करना और उनका निर्वाह एक सामाजिक दायित्व माना गया है। ऐसी स्थिति में भीड़ की अनुभूति का होना या न होना मात्र लोगों की उपस्थिति या अनुपस्थिति पर ही नहीं वरन् इस पर निर्भर करती है कि भीड़ में कौन से लोग उपस्थिति हैं। जब परिचित या प्रियजन होते हैं तो उनके बीच के व्यक्ति को स्वयं अपने ‘स्व’ के विस्तार की अनुभूति होती है। भीड़ को प्रायः सीमित स्थान में लोगों की उपस्थिति में उत्पन्न स्थानाभाव के बोध या अनुभूति के रूप में लिया जाता है। इस पर पुनर्विचार की आवश्यकता है क्योंकि भीड़ की अनुभूति के लिए यह अपर्याप्त है। भीड़ में कौन से लोग हैं और उनके एकत्र होने का उदेश्य क्या है ? बिना इस ध्यान दिए भीड़ का सम्प्रत्ययन अधूरा होगा।

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