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Thursday, January 20, 2011
operating system
प्रचालन तंत्र (अंग्रेज़ी:ऑपरेटिंग सिस्टम) साफ्टवेयर का समूह है जो कि आंकड़ों एवं निर्देश के संचरण को नियंत्रित करता है। यह हार्डवेयर एवं साफ्टवेयर के बीच सेतु का कार्य करता है और कंप्यूटर का सॉफ्टवेयर घटक होता है। इसी की सहायता से ही कंप्यूटर में स्थापित प्रोग्राम चलते हैं। ऑपरेटिंग सिस्टम कंप्यूटर का मेरुदंड होता है, जो इसके सॉफ्टवेयर व हार्डवेयर को नियंत्रण में रखता है। यह अनाधिकृत व्यक्ति को कंप्यूटर के गलत प्रयोग करने से रोकता है।[१] वह इसमें भी विभेद कर सकता हैं कि कौन सा निवेदन पूरा करना है और कौन सा नहीं, इसके साथ ही इनकी वरीयता भी ध्यान रखी जाती है। इसकी मदद से एक से ज्यादा सीपीयू में भी प्रोगाम चलाए जा सकते हैं। इसके अलावा संगणक संचिका को पुनः नाम देना, डायरेक्टरी की विषय सूची बदलना, डायरेक्टरी बदलना आदि कार्य भी प्रचालन तंत्र के द्वारा किए जाते है।[२] डॉस (DOS), यूनिक्स, विंडोज़ ऑपरेटिंग सिस्टम (३.१, ९५, ९८, २०००, एक्स पी, विस्ता, विंडोज ७) और लिनक्स आदि कुछ प्रमुख प्रचालन तंत्र हैं।[२]
विभिन्न प्रचालन तंत्रों में से कुछ हैं:लिनक्स, मैक ओएस एक्स, डॉस, आईबीएम ओएस/2 (IBM OS/2), यूनिक्स, विन्डोज सीई, विन्डोज 3.x, विन्डोज ९५, विन्डोज ९८, विन्डोज मिलेनियम, विन्डोज़ एनटी, विन्डोज २०००, विन्डोज़ एक्स पी, विन्डोज़ विस्टा, विन्डोज़ 7
प्रचालन तंत्र कंप्यूटर से जुड़े कई मौलिक कार्यों को संभालता है, जैसे की-बोर्ड से इनपुट लेना, डिस्प्ले स्क्रीन को आउटपुट भेजना, डाइरेक्टरी और संगणक संचिका को डिस्क में ट्रेक करना, इत्यादि। बड़े कंप्यूटरों में इसका काम और अधिक होता है।[१] वह इनमें लगातार यह जांच करता है कि एक ही समय पर कंप्यूटर में चलने वाले प्रोगामों, फाइलों और एक ही समय पर खुलने वाली साइटों में दोहराव न हो। आरंभिक दौर में यह मेनफ्रेम कंप्यूटरों पर बड़े कामों के लिए ही हुआ करता था। बाद में धीरे-धीरे माइक्रोकम्प्यूटर्स में भी मिलने लगा, लेकिन उस समय इसमें एक समय पर केवल एक ही प्रोगाम रन करा सकते थे। मेनफ्रेम कंप्यूटर में १९६० में पहली बार बहुकार्यिक (मल्टीटास्किंग) सिस्टम आया था। इससे एक समय में एक से ज्यादा उपयोक्ता काम कर सकते थे। १९७० लिनक्स ने पहली बार पीडीपी-७ में प्रचालन तंत्र निकाला, जो मुख्यतया मल्टीटास्किंग, स्मृति प्रबंधन (मेमोरी मैनेजमेंट), स्मृति संरक्षण (मेमोरी प्रोटेक्शन) जैसे कार्य करता था।
ऑपरेटिंग सिस्टम क्या है
ऑपरेटिंग सिस्टम एक सिस्टम सॉफ्टवेयर है, जो कम्प्यूटर सिस्टम के हार्डवेयर रिसोर्सेस, जैसे-मैमोरी, प्रोसेसर तथा इनपुट-आउटपुट डिवाइसेस को व्यवस्थित करता है । ऑपरेटिंग सिस्टम व्यवस्थित रूप से जमे हुए साफ्टवेयर का समूह है जो कि आंकडो एवं निर्देश के संचरण को नियंत्रित करता है । ऑपरेटिंग सिस्टम, कम्प्यूटर सिस्टम के प्रत्येक रिसोर्स की स्थिति का लेखा - जोखा रखता है तथा यह निर्णय भी लेता है कि किसका कब और कितनी देर के लिए कम्प्यूटर रिसोर्स पर नियंत्रण होगा । एक कम्प्यूटर सिस्टम के मुख्य रूप से चार घटक हैं -
* हार्डवेयर
* ऑपरेटिंग सिस्टम
* एप्लीकेशन प्रोग्राम
* यूजर्स
आपरेटिंग सिस्टम की आवश्यकता
आपरेटिंग सिस्टम हार्डवेयर एवंसाफ्टवेयर के बिच सेतु का कार्य करता है कम्पयुटर का अपने आप मे कोई अस्तित्व नही है । यङ केवल हार्डवेयर जैसे की-बोर्ड, मानिटर , सी.पी.यू इत्यादि का समूह है आपरेटिंग सिस्टम समस्त हार्डवेयर के बिच सम्बंध स्थापित करता है आपरेटिंग सिस्टम के कारण ही प्रयोगकर्ता को कम्युटर के विभिन्न भागो की जानकारी रखने की जरूरत नही पडती है साथ ही प्रयोगकर्ता अपने सभी कार्य तनाव रहित होकर कर सकता है यह सिस्टम के साधनो को बाॅटता एवं व्यवस्थित करता है
आपरेटिंग सिस्टम के कई अन्य उपयोगी विभाग होते है जिनके सुपुर्द कई काम केन्द्रिय प्रोसेसर द्वारा किए जाते है । उदाहरण के लिए प्रिटिंग का कोई किया जाता है तो केन्द्रिय प्रोसेसर आवश्यक आदेश देकर वह कार्य आपरेटिंग सिस्टम पर छोड देता है । और वह स्वयं अगला कार्य करने लगता है । इसके अतिरिक्त फाइल को पुनः नाम देना , डायरेक्टरी की विषय सूचि बदलना , डायरेक्टरी बदलना आदि कार्य आपरेटिंग सिस्टम के द्वारा किए जाते है ।
इसके अन्तर्गत निम्न कार्य आते है -
1) फाइल पद्धति
फाइल बनाना, मिटाना एवं फाइल एक स्थान से दूसरे स्थान ले जाना । फाइल निर्देशिका को व्यवस्थित करना ।
2) प्रक्रिया
प्रोग्राम एवं आंकडो को मेमोरी मे बाटना । एवं प्रोसेस का प्रारंभ एवं समानयन करना । प्रयोगकर्ता मध्यस्थ फाइल की प्रतिलिपी ,निर्देशिका , इत्यादि के लिए निर्देश , रेखाचित्रिय डिस्क टाप आदि
3) इनपुट/आउटपुट
माॅनिटर प्रिंटर डिस्क आदि के लिए मध्यस्थ
Saturday, January 15, 2011
अर्थशास्त्र
यह पृष्ठ अर्थशास्त्र विषय से संबन्धित है। कौटिल्य द्वारा रचित अर्थशास्त्र ग्रन्थ के लिये यहां देखें।
अर्थशास्त्र (Economics) सामाजिक विज्ञान की वह शाखा है, जिसके अन्तर्गत वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन, वितरण, विनिमय और उपभोग का अध्ययन किया जाता है। अर्थशास्त्र शब्द संस्कृत शब्दों अर्थ( धन ) और शास्त्र की सन्धि से बना है, जिसका शाब्दिक अर्थ है धन का अध्ययन।
लियोनेल रोबिंसन के अनुसार आधुनिक अर्थशास्त्र की परिभाषा इस प्रकार है,"वह विज्ञान जो मानव स्वभाव का वैकल्पिक उपयोगों वाले सीमित साधनों और उनके प्रयोग के मध्य अन्तर्सम्बन्धों का अध्ययन करता है।" दुर्लभता का अर्थ है कि उपलब्ध संसाधन सभी मांगों और जरुरतों को पूरा करने में असमर्थ हैं। दुर्लभता और संसाधनों के वैकल्पिक उपयोगों के कारण ही अर्थशास्त्र की प्रासंगिकता है। अतएव यह विषय प्रेरकों और संसाधनों के प्रभाव में विकल्प का अध्ययन करता है।
अनुक्रम [छुपाएँ]
१ वर्गीकरण
२ इतिहास
३ विषयवस्तु
४ मूल अवधारणायें
४.१ मूल्य
४.२ माँग और आपूर्ति
४.३ मूल्य
५ इन्हें भी देखें
६ संदर्भ
७ बाहरी कड़ियाँ
[संपादित करें]वर्गीकरण
व्यष्टि अर्थशास्त्र एवं समष्टि अर्थशास्त्र (Microeconomics and Macroeconomics)
सकारात्मक अर्थशास्त्र (जो हो रहा है) एवं मानक अर्थशास्त्र (जो होना चाहिए )
मुख्यधारा अर्थशास्त्र एवं अपारम्परिक अर्थशास्त्र
अर्थशास्त्र का प्रयोग यह समझने के लिये भी किया जाता है कि अर्थव्यवस्था किस तरह से कार्य करती है और समाज में विभिन्न वर्गों का आर्थिक सम्बन्ध कैसा है । अर्थशास्त्रीय विवेचना का प्रयोग समाज से सम्बन्धित विभिन्न क्षेत्रों में किया जाता है, जैसे:- अपराध, शिक्षा, परिवार, स्वास्थ्य , कानून, राजनीति, धर्म, सामाजिक संस्थान और युद्ध इत्यदि।[१]
[संपादित करें]इतिहास
अर्थशास्त्र पर लिखी गयी प्रथम पुस्तक कौटिल्य रचित अर्थशास्त्र है। यद्यपि उत्पादन और वितरण के बारे में परिचर्चा का एक लम्बा इतिहास है, किन्तु आधुनिक अर्थशास्त्र का जन्म एडम स्मिथ की किताब द वेल्थ आफ़ नेशन्स के 1776 में प्रकाशन के समय से माना जाता है।
[संपादित करें]विषयवस्तु
अर्थशास्त्र को कई प्रकारों से विभाजित किया जा सकता है, किन्तु किसी अर्थव्यवस्था का निम्नलिखित दो तरीकों से विश्लेषण किया जाता है।
व्यष्टि अर्थशास्त्र के अंतर्गत व्यक्तिगत इकाइयों (जिनमें व्यापार एवं परिवार शामिल हैं ) और सीमित बाजार में उनके अन्तःसम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है।
समष्टि अर्थशास्त्र अन्तर्गत समूचे देश की अर्थव्यवस्था का अध्ययन किया जाता है। इसके अन्तर्गत सकल घरेलू उत्पाद, रोजगार, मुद्रास्फीति, उपभोग,निवेश जैसी राशियों का अध्ययन किया जाता है।
[संपादित करें]मूल अवधारणायें
[संपादित करें]मूल्य
मूल्य की अवधारणा अर्थशास्त्र में केन्द्रीय है। इसको मापने का एक तरीका वस्तु का बाजार भाव है। एडम स्मिथ ने श्रम को मूल्य के मुख्य श्रोत के रुप में परिभाषित किया। "मूल्य के श्रम सिद्धान्त" को कार्ल मार्क्स सहित कई अर्थशास्त्रियों ने प्रतिपादित किया है। इस सिद्धान्त के अनुसार किसी सेवा या वस्तु का मूल्य उसके उत्पादन में प्रयुक्त श्रम के बराबर होत है। अधिकांश लोगों का मानना है कि इसका मूल्य वस्तु के दाम निर्धारित करता है। दाम का यह श्रम सिद्धान्त "मूल्य के उत्पादन लागत सिद्धान्त" से निकटता से जुड़ा हुआ है।
[संपादित करें]माँग और आपूर्ति
प्रारुप बताता है कि किस तरह आपूर्ति और मॉग के सन्तुलन से कीमत में परिवर्तन होता है।
में माँग और आपूर्ति की सहायता से पूर्णतः प्रतिस्पर्धी बाजार में बेचे गये वस्तुओं कीमत और मात्रा की विवेचना , व्याख्या और पुर्वानुमान लगाया जाता है। यह अर्थशास्त्र के सबसे मुलभूत प्रारुपों में से एक है। क्रमश: बड़े सिद्धान्तों और प्रारूपों के विकास के लिए इसका विशद रुप से प्रयोग होता है।
माँग किसी नियत समयकाल में किसी उत्पाद की वह मात्रा है, जिसे नियत दाम पर उपभोक्ता खरीदना चाहता है और खरीदने में सक्षम है।माँग को सामान्यतः एक तालिका या ग्राफ़ के रुप में प्रदर्शित करते हैं जिसमें कीमत और इच्छित मात्रा का संबन्ध दिखाया जाता है।
आपूर्ति वस्तु की वह मात्रा है जिसे नियत समय में दिये गये दाम पर उत्पादक या विक्रेता बाजार में बेचने के लिए तैयार है। आपूर्ति को सामान्यतः एक तालिका या ग्राफ़ के रुप में प्रदर्शित करते हैं जिसमें कीमत और आपूर्ति की मात्रा का संबन्ध दिखाया जाता है।
[संपादित करें]मूल्य
किसी वस्तु की कीमत किसी बाजार में ग्राहक और विक्रेता के बीच उसकी विनिमय की दर है।
[संपादित करें]
पटकथा-लेखन
पटकथा-लेखन एक हुनर है। अंग्रेजी में पटकथा-लेखन के बारे में पचासों किताबें उपलब्ध हैं और विदेशों के खासकर अमेरिका के, कई विश्वविद्यालयों में पटकथा-लेखन के बाक़ायदा पाठ्यक्रम चलते हैं। लेकिन भारत में इस दिशा में अभी तक कोई पहल नहीं हुई। हिन्दी में तो पटकथा-लेखन और सिनेमा से जुड़ी अन्य विद्याओं के बारे में कोई अच्छी किताब छपी ही नहीं है। इसकी एक वजह यह भी है कि हिन्दी में सामान्यतः यह माना जाता रहा है कि लिखना चाहे किसी भी तरह का हो, उसे सिखाया नहीं जा सकता। कई बार तो लगता है कि शायद हम मानते हैं कि लिखना सीखना भी नहीं चाहिए। यह मान्यता भ्रामक है और इसी का नतीजा है कि हिन्दी वाले गीत-लेखन, रेडियो, रंगमंच, सिनेमा, टी.वी. और विज्ञापनों आदि में ज़्यादा नहीं चल पाए।
लेकिन इधर फिल्म और टी.वी के प्रसार और पटकथा-लेखन में रोजगार की बढ़ती सम्भावनाओं को देखते हुए अनेक लोग पटकथा-लेखन में रुचि लेने लगे हैं, और पटकथा के शिल्प की आधारभूत जानकारी चाहते हैं। अफसोस कि हिन्दी में ऐसी जानकारी देने वाली पुस्तक अब तक उपलब्ध ही नहीं थी।
‘पटकथा-लेखन : एक परिचय’ इसी दिशा में एक बड़ी शुरुआत है, न सिर्फ इसलिए कि इसके लेखक सिद्ध पटकथाकार मनोहर श्याम जोशी हैं, बल्कि इसलिए भी कि उन्होंने इस पुस्तक की एक-एक पंक्ति लिखते हुए उस पाठक को ध्यान में रखा है जो फिल्म और टी.वी में होने वाले लेखन का क, ख ग, भी नहीं जानता। प्राथमिक स्तर की जानकारियों से शुरू करके यह पुस्तक हमें पटकथा लेखन और फिल्म व टी.वी की अनेक माध्यमगत विशेषताओं तक पहुँचाती हैं, और सो भी इतनी दिलचस्प और जीवन्त शैली में कि पुस्तक पढ़ने के बाद आप स्वतः ही पटकथा पर हाथ आजमाने की सोचने लगते हैं।
1
देखने-सुनने की चीज है सिनेमा
कुछ लोग ऐसा सोचते हैं कि जिसे लिखना आता है वह कुछ भी लिख सकता है। लेकिन यह सच नहीं है। हर विधा की, हर माध्यम की अपनी अलग-अलग विशेषताएं होती हैं और उनके लिए लिख सकने के लिए अलग-अलग तरह की योग्यताएँ दरकार होती हैं। उदाहरण के लिए, पत्रकार से यह आशा की जाती है कि यथार्थ का कम-से-कम शब्दों में ज्यों-का-त्यों वर्णन करेगा और अपनी कल्पना से कोई काम नहीं लेगा। दूसरी ओर कहानीकार से यह उम्मीद की जाती है कि वह अपनी कल्पना के सहारे यथार्थ को एक यादगार रंग देकर साहित्य के स्तर पर पहुंचा देगा।
साहित्य में यह सुविधा है कि शब्दों के सहारे किसी भी चीज का वर्णन किया जा सकता है और कैसी भी भावना उभारी जा सकती है। कोई पात्र क्या याद कर रहा है ? क्या सपने देख रहा है ? उसकी परिस्थिति क्या है ? मन:स्थिति क्या है ? अन्य पात्रों से उसके सम्बन्ध कैसे हैं ? उनके बारे में वह क्या सोचता है ? पात्रों की आपसी टकराहट से कब, कहाँ, क्या हो रहा है ? इस सबका शब्दों द्वारा वर्णन किया जा सकता है। लिखित साहित्य में एक अतिरिक्त सुविधा यह प्राप्त है कि अगर पाठक को कोई बात पहली बार पढकर समझ में न आए तो वह उसे फिर-फिर पढ़ सकता है।
वाचिक साहित्य, श्रव्य माध्यम
वाचिक (बोलकर सुनाए जानेवाले) साहित्य में श्रोता को यह सुविधा प्राप्त नहीं है। व्यास गद्दी पर विराजमान कथावाचक को श्रोता बार-बार नहीं टोक सकते कि हम समझ नहीं पाए, कृपया दुबारा कहें। इसलिए वाचिक साहित्य में बात को सरल शब्दों और वाक्यों में कहना होता है। यादगार और चुभती हुई बनाकर कहना होता है। मंच से गा-बोलकर सुनाए जाने वाले साहित्य में कलाकार कठिन प्रसंगों को दुहराने की या स्वयं ही ‘अर्थात्’ या ‘क्या कहा’ जैसे प्रश्न उठाकर खुलासा करने की युक्ति भी अपनाते हैं। लोक-नाटक ‘सांग’ में जब किसी हिंदी-उर्दू-गीत में कोई कठिन पंक्ति आती है तब संचालक सम्बद्ध पात्र से पूछता है कि उस पंक्ति का क्या मतलब है-यथा-‘‘अरी गुल बकावली, तू दो लम्बर पर के बोली ?’’ और फिर वह पात्र ठेठ हरियाणवी गद्य में पंक्ति विशेष का अर्थ बताता/बताती है।
वाचिक साहित्य के आधुनिक माध्यम रेडियो से नाटक प्रस्तुत करते हुए दोहराने-समझाने की ऐसी कोई गुंजाइश नहीं होती। यही नहीं, श्रोता बोलनेवाले को केवल सुनता है, देखता नहीं कि उसके चेहरे के भाव पढ़ सके। इस दृष्टि से रेडियो खालिस श्रव्य माध्यम है। इसके लिए ऐसा लेखक दरकार है जो सारा कथानक पात्रों की आपसी बातचीत और साउंड इफैक्ट यानी ध्वनि-प्रभाव के सहारे उजागर कर सके। फर्ज कीजिए कि दृश्य यह हो कि नायक-नायिका घोड़े पर सवार होकर अपना पीछा करते नायिका के घुड़सवार भाइयों से बचते हुए नाटक के गाँव की ओर बढ़ रहे हैं जो फिरोजा नदी के पार है, तो घोड़ों की टापों के ध्वनि-प्रभाव से और नायक-नायिका और भाइयों की आपसी बातचीत से पीछा किए जाने की स्थिति स्पष्ट करनी होगी और फिर नदी की कल-कल के ध्वनि-प्रभाव और नायक के संवाद से स्पष्ट करना होगा कि वह फिरोजा नदी आ गई है, जिसके पार उसका गाँव है।
साहित्य पढ़ने से ताल्लुक रखता है तो रेडियो सुनने से। उधर फिल्म और टी.वी. ऐसे माध्यम हैं जिनमें हम एक साथ देखते भी हैं, सुनते भी हैं, और पर्दे पर लिखा हुआ पढ़ भी सकते हैं। फिल्म और टी.वी. में हम घटनाओं को होता हुआ देखते हैं और पात्रों को बोलता हुआ सुनते हैं। इसीलिए इन्हें ऑडियो-विजुअल यानी दृश्य-श्रव्य माध्यम कहते हैं। यहाँ यह पूछा जा सकता है कि रंगमंच में भी तो हम घटनाओं को होता हुआ और पात्रों को बोलता हुआ सुनते हैं; तो फिर रंगमंच को ऑडियो-विजुअल क्यों नहीं कहते ? इसका जवाब यह है कि रंगमंच के लिए लिखा गया नाटक तो ‘साहित्य’ की श्रेणी में आता है क्योंकि उसमें सारी बात संवादों यानी शब्दों के माध्यम से प्रस्तुत की जाती है। यह नाटक दर्शकों के सामने अभिनेताओं द्वारा खेला जाता है इसीलिए उसकी प्रस्तुति प्रदर्शन-कलाओं के अन्तर्गत आती है।
सिनेमा और नाटक
आप आपत्ति कर सकते हैं कि फिल्म और टी.वी. के लिए भी पटकथा लिखी जाती है और उसे डायरेक्टर यानी दिग्दर्शक के निर्देशन में ठीक उसी तरह खेला जाता है जैसे मंच पर। यह सवाल उठाना तीन बातों को भूल जाना है। पहली यह कि फिल्म और टी.वी. में रंगमंच की तरह नाटक दर्शकों के नहीं, एक कैमरे के सामने खेला जाता है। दूसरी यह कि जो एक बार खेल दिया जाता है वह हमेशा के लिए दर्ज हो जाता है। तीसरी और सबसे अहम बात यह है कि दर्शकों के प्रतिनिधि बने हुए कैमरों पर रंगमंच के दर्शक की तरह यह रोक नहीं होती कि वह अपनी ही सीट पर बैठकर तमाशा देखें, मंच पर न चढ़ आएँ। रंगशाला में आगे से आगे वाली सीट पर बैठे हुए दर्शकों और मंच पर खड़े पात्रों के बीच भी हमेशा एक दूरी बनी रहती है। सिनेमाघर में बैठे दर्शक के लिए कैमरा यह दूरी मिटा देता है। यही नहीं, कैमरा अपनी सीट पर ही बैठे दर्शक को पात्रों से चाहे जितनी दूरी पर भी, चाहे जितना ऊपर-नीचे ले जा सकता है।
कैमरा आगे-पीछे कहीं भी कितनी भी दूरी पर रखा जा सकता है। पास से दूर ले जाया जा सकता है और दूर से पास लाया जा सकता है। उसे ऊपर-नीचे ले जाया जा सकता है; अपनी धुरी पर घुमाया जा सकता है। पात्रों के सिर के ऊपर की ओर देखता हुआ रखा जा सकता है तो पात्रों के कदमों से भी नीचे से ऊपर की ओर देखता हुआ रखा जा सकता है। उसे समुद्र की गहराई में ले जाया जा सकता है और पर्वत की ऊंचाई पर भी। गोया कैमरा आजाद और बेढब करतब करके सब कुछ देख लेने को तैयार दर्शक बन जाता है। कैमरा दर्शक का नुमाइंदा बनकर किसी भी पात्र या वस्तु के नजदीक जा सकता है। वह किसी पात्र के चेहरे की छोटी-से-छोटी भाव-भंगिमा, उसके बदन का कोई छोटे-से-छोटे हिस्सा, कोई छोटी-से-छोटी वस्तु या उसका हिस्सा और किसी स्थल का छोटे-से-छोटा ब्यौरा दिखा सकता है। साथ ही वह चीजों को इतना बड़ा करके दिखा सकता है जितना कि पास आकर भी आँख से नहीं देखा जा सकता।
रंगमंच में यह सीमा भी होती है कि उसमें बहुत बड़ी-बड़ी चीजें नहीं दिखाई जा सकतीं। भव्य-से-भव्य मंच पर पानीपत की लड़ाई या एवरेस्ट विजय या सागर में टाइटैनिक जहाज का डूबना जैसे दृश्य नहीं दिखाए जा सकते। उधर कैमरा जैसे छोटी-से-छोटी चीज को दिखा सकता है, वैसे ही बड़ी-से-बड़ी चीज को भी। रंगमंच में सीमित ही सैट लग सकते हैं इसलिए सीमित ही घटना-स्थल रखे जा सकते हैं। उतना ही दिखाया जा सकता है जितना उन सैटों में हो सकता है। फिल्म और टी.वी. में ऐसी कोई सीमा नहीं है। आप चाहे जितने सैट बना सकते हैं और चाहे जितने बाहरी लोकेशनों पर जा सकते हैं। पात्रों को ले जाइए, कैमरा ले जाइए और लोकेशन पर शूट कर लाइए और फिर सबको जोड़कर दिखा दीजिए। एक तरफ से दर्शक के लिए फिल्म की खासियत ही यह बन जाती है कि उसमें घटना-स्थल बड़ी तेजी से बदलता रहता है।
बिम्ब बोलेंगे, हम नहीं
जहाँ रंगमंच के मुकाबले फिल्म में ये तमाम सुविधाएँ थीं, वहीं शुरू में उतनी ही बड़ी एक असुविधा भी थी कि चित्र के साथ ध्वनि अंकित नहीं की जा सकती थी। गोया सिनेमा गूँगा था। इस असुविधा ने एक नई भाषा को जन्म दिया जिसमें तस्वीरें ही खुद बोलती थीं। चित्रों के सहारे कहानी कह देने की यह कला कैमरे के पास-दूर, इधर-उधर जा सकने से मिलनेवाले तरह-तरह के चित्रों और इस तरह खींचे हुए चित्रों को उनमें सम्बन्ध पैदा करनेवाले क्रम से जोड़ने की युक्ति से विकसित हुई। मूकपट के दौर में दिग्दर्शकों ने इस कला में इतनी महारत हासिल कर ली कि बगैर संवाद सुने भी ज्यादातर कहानी दर्शकों की समझ में आने लगी। जहां बहुत ही जरूरी हुआ केवल वहीं संवाद को कार्ड में लिखकर फिल्मा लिया गया और पात्र के ओंठ खुलने के बाद दिखा दिया गया। बोलते बिम्बों का कमाल कुछ वर्षों पहले कमल हसन की मूक फिल्म ‘पुष्पक’ में देखा गया। उसमें तो कहीं कोई संवाद का कार्ड तक न था।
जब चित्र के साथ-साथ ध्वनि भी अंकित की जाने लगी तब मूकपट ने बोलचाल का रूप ले लिया। इससे संवादों का महत्त्व बढ़ा लेकिन इतना भी नहीं कि रंगमंच की तरह सारी बात संवादों के माध्यम से कही जाने लगे। कोई नाटक खेला और कैमरा दर्शक की तरह रखकर उसे दर्शा दिया ! मूकपट दर्शकों को बिम्बों की सशक्त भाषा का इतना आदी कर चुका था कि इस तरह से फिल्माया गया नाटक उन्हें बिलकुल बेजान लगता। इसीलिए बिम्बों का महत्त्व बना रहा और संवाद फिल्मों पर पूरी तरह हावी न हो सके। हां, नाटकों से इन नए माध्यमों ने ‘नाटकीयता की पकड़’ और ‘तीन अंकों वाला ढाँचा’ जरूर ज्यों-का-त्यों उधार ले लिया।
फिल्म और टेलीविजन में बिम्बों की भाषा और पात्रों के संवाद, दोनों का कहानी कहने में बड़ा महत्त्व है। लेकिन फिल्म और टेलीविजन में एक बड़ा अंतर यह है कि टेली-नायक में संवादों का महत्त्व लगभग उतना ही हो जाता है जितना नाटक में। इसकी वजह यह है कि टेलीविजन का पर्दा सिनेमा के पर्दे के मुकाबले में बहुत छोटा होता है उसमें कैमरा को बहुत दूर ले जाने से खास कुछ दिखता नहीं। इललिए ज्यादातर पात्रों के बोलते हुए चेहरे ही फिल्माए जाते हैं। गोया बिम्बों में ज्यादा विविधता नहीं रह पाती। दूसरी वजह यह है कि इस छोटे से पर्दे पर आते बिम्बों को दर्शक किसी बंद अँधेरे हॉल में नहीं, अपने घर के किसी रौशन कमरे में बैठे हुए देखते हैं। इसलिए उनकी आँखें पर्दे पर एकटक नहीं जमी रह पातीं। अगर पात्र चुप हो जाएँ तो ध्यान पर्दे से हट जाता है। फिर टेली-नाटकों के सीमित बजट में लोकेशनों पर जाना या बहुत ज्यादा सैट बनवाना सम्भव नहीं होता। रंगमंच की तरह उनमें भी कुछ ही सैटों में काम चलाना पड़ता है। इसलिए संवादों का महत्त्व बढ़ जाता है।
ऑडियो-विजुअल इमेजिनेशन
सिनेमा और टेलीविजन की विभिन्नता की बात बाद में विस्तार से की जा सकती है। अभी तो उनकी समानता की ओर ध्यान दिलाना है कि दोनों ही दृश्य-श्रव्ये माध्यम है। इनमें घटनाओं को होता हुआ दिखाया जाता है और पात्रों को बोलता हुआ। तो इस माध्यम के लिए लिखनेवाला व्यक्ति ऐसा होना चाहिए जो दृश्य-श्रव्य कल्पना का धनी हो। दृश्य-श्रव्य कल्पना उर्फ ‘ऑडियो-विजुअल इमेजिनेशन’ का अर्थ है अपने मानस-पटल पर घटनाओं को घटता हुआ देख सकना और पात्रों को आपस में संवाद करते हुए सुन सकना। ऐसा तभी हो सकता है जब आपका दिमाग भी फिल्म कैमरे की तरह काम करता हो और घटना और संवादों का ब्यौरा दर्ज करता रहता हो। यानी आप दृश्य-श्रव्य स्मृति के धनी हों।
यह मेरा सौभाग्य था कि मेरे साहित्यिक गुरु अमृतलालजी नागर यानी आप दृश्य-श्रव्य के धनी हो, की दृश्य-श्रव्य कल्पना अद्भुत थी। जब मैं लखनऊ में उनका चेला बना तब नागरजी सिनेमा जगत से साहित्य में लौटे थे। नागरजी को पहला ड्राफ्ट बोलकर शिष्यों से लिखवाने की आदत थी। यद्यपि वह सिनेमाघर से विरक्त होकर आए थे और हम शिष्यों को पटकथा लेखन सिखाने से साफ इनकार करते थे तथापि पटकथा लेखन की शैली का उन पर इतना गहरा असर था कि उनके बोले हुए ‘बूँद और समुद्र’ को कागज पर उतारना गोया पटकथा लेखन के बुनियादी तत्वों से परिचित होना था। पात्रों, परिस्थितियों और घटनाओं का सजीव वर्णन, पात्रों की पृष्ठभूमि और मन:स्थिति के अनुसार संवाद घटनाओं के माध्यम से चरित्र निरूपण और चरित्रों के घात-प्रतिघात से पैदा हुई घटनाएँ-पटकथा के ये तमाम नुस्खे मुझे नागरजी की वृत्तांत शैली में मिले। भगवतीचरण वर्मा के उपन्यासों में भी आप पटकथा का प्रभाव देख सकते हैं। वह भी बॉलीवुड में रह चुके थे।
द्रष्टव्य है कि नागरजी और भगवती बाबू दोनों ही बेहतरीन किस्सागो थे। घटनाओं का रस लेते हुए और रस देते हुए सजीव वर्णन करनेवाली किस्सागोई दृश्य-श्रव्य कल्पना की उपज होती है। आपने देखा होगा कि कुछ लोग न सिर्फ ब्यौरेवार यह बता पाते हैं कि क्या हुआ, बल्कि यह भी सुनाते जाते हैं कि किसने कब क्या कहा ? कौन कैसा था ? क्या पहने हुए था ? आदि-आदि। ऐसे लोग दृश्य-श्रव्य स्मृति के धनी होते हैं। मेरी बहन इंटर की प्राइवेट परीक्षा देने के लिए मुरादनगर में एक हफ्ता बिताकर जब लौटी तब उसने महीनों तक वहाँ के किस्से सुना-सुनाकर हमारा मनोरंजन किया। ठीक तीस साल बाद जब उसकी छोटी बेटी दो साल अमेरिका में रहकर लौटी तब उसके अमेरिका प्रवास की सारी कहानी 20-25 मिनट में खत्म हो गई। मेरी भांजी मास कॉम की छात्रा होने के नाते पटकथा लेखन की जानकारी रखती है पर उसमें दृश्य-श्रव्य स्मृति का अभाव है। उधर मेरी बहन भरपूर दृश्य-श्रव्य-स्मृति और कल्पना की धनी है।
किस्सागो, बनिए
अफसोस, पेशेवर किस्सागो अब नहीं रहे ! वरना मैं आपसे कहता कि दृश्य-श्रव्य कल्पना का कमाल देखना हो तो उनकी किस्सागोई का आनंद लेने जाए। वे न सिर्फ यह बताते थे कि किस क्रम से क्या-क्या कहा। बल्किन नकलें उतार-उतार कर यह भी थे किसने किस अंदाज में क्या-क्या कहा। बल्कि वह पात्रों की मन:स्थिति और प्रतिक्रियाओं का भी आभास देते जाते थे-कुछ अपने शब्दों से और कुछ अपने अभिनय से। इस तरह से सारी घटना को उसकी पूरी नाटकीयता के साथ श्रोता के लिए उजागर कर देते। अगर कहीं कोई पेशेवर किस्सागो अब भी हो तो उसे जरूर सुनें। नहीं तो मेरी बहन सरीखे जो गैर-पेशेवर किस्सागो आपकी जानकारी में हों उनकी बातों का रस लें। लोकमंच की कुछ विधाओं में और धार्मिक प्रवचनों में आज भी जबरदस्त किस्सागोई की बानगी आपको मिल सकती है।
हाल में मैंने व्यास गद्दी पर बैठे एक कथावाचक को महाभारत का एक प्रसंग इस तरह प्रस्तुत करते हुए सुना-‘‘वहां पहुंचकर अर्जुन क्या देखता है कि भगवान श्रीकृष्ण शयन कर रहे हैं और दुर्योधन सिरहाने खड़ा है। दुर्योधन को वहां देखकर अर्जुन झटका खा जाता है कि अरे, ये तो मुझसे भी पहले पहुँच गए। खैर वह जाकर श्रीकृष्ण भगवान के पैताने बैठकर प्रभु के श्रीचरण दबाने लगता है। थोड़ी देर में प्रभु की आँख खुलती हैं। उन्हें पैताने बैठा अर्जुन पहले नजर आता है। प्रभु पूछते हैं बताओं, किस कारण आए ? अर्जुन हाथ जोड़कर निवेदन करता है कि मैं युद्ध में आपकी सहायता लेने आया हूँ। तब दुर्योधन बात को बीच में काटकर कहता है कि सहायता के लिए इससे पहले मैं आया हूँ, पहले मेरी बात सुनी जाए। प्रभु उठ बैठते है और मुसकराकर कहते हैं कि आए तुम जरूर पहले होगे मगर पैताने बैठा अर्जुन मुझे पहले नजर आया। दुर्योधन आपत्ति करता है कि यह अन्याय वाली बात होगी। प्रभु फिर मुसकराते हैं और कहते हैं कि देखो, मैं पूरा न्याय करूँगा-दोनों को सहायता देकर। तुममे से एक व्यक्ति मेरी सारी सेनाएँ ले लो और दूसरा सिर्फ मुझे। श्रीकृष्ण भगवान पहले अर्जुन को पूछतें हैं, तुम्हें क्या चाहिए ? दुर्योधन का चेहरा चिंता से खिंच जाता है कि अब यह सारी सेना माँग लेगा। लेकिन श्रीकृष्ण भक्त अर्जुन कहता है मुझे आप चाहिएं प्रभु, आपकी सेनाएँ नहीं। और मूर्ख दुर्योधन इसे अर्जुन की मूर्खता समझकर खुश होता है।’’
अगले परिच्छेद में आप देखेंगे कि कथावाचक की यह शैली ही पटकथा लेखन की शैली है।
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पटकथा क्या बला है ?
तो मैं कह रहा था कि कथावाचक और किस्सागो अक्सर पटकथा की शैली अपनाते हैं। यह पटकथा की शैली क्या है और कहानी कहने के आम ढंग से वह किस तरह अलग हैं, यह जानने के लिए कोई पटकथा पढ़ने की आवश्यकता नहीं है। फिल्म देखकर आए हुए किसी भी व्यक्ति से फिल्म की कहानी सुन लीजिए, बात साफ हो जाएगी।
एक बार मैने ‘दिल वाले दुल्हनियाँ ले जाएँगे’ देखकर आई अपनी भतीजी से उस फिल्म की कहानी पूछी तो उसने कुछ इस तरह कहा-काजोल लंदन में दुकान खोले हुए कठोर अमरीशपुरी और सदय फरीदा जलाल की बेटी होती है। हालाँकि काजोल लंदन में पली-बढ़ी होती है। अमरीशपुरी उस पर अपने भारतीय गाँव से मिले हुए संस्कार थोपता रहता है। काजोल बेचारी उससे बहुत डरती है। अमरीशपुरी उसका ब्याह बचपन में ही भारत में अपने दोस्त के बेटे से तय कर चुका होता है। काजोल को यह बात बेतुकी लगती है, पर वह बाप से कुछ नहीं कह पाती। शाहरूख खान मस्तमौला विधुर अनुपम खेर का बेटा होता है। बाप-बेटा दोनों दोस्त-जैसे होते हैं। एक रात शाहरूख खान जरूरी दवा खरीदने के बहाने अमरीशपुरी की बंद दुकान खुलवा देता है और बीयर ले जाता है। इससे अमरीशपुरी को शाहरूख खान बहुत घटिया लड़का लगता है। उधर फरीदा जलाल अपने पति से चिरौरी करके बेटी को भारत लौटने से पहले सहेलियों के साथ यूरोप यात्रा पर जाने की इजाजत देती है। वहीं उसकी मुलाकात शाहरूख खान से होती है। तकरार के बाद दोनों में प्यार हो जाता है। लंदन लौटने पर अमरीशपुरी को इस बात का पता चलता है और वह काजोल को लेकर पंजाब चल देता है, सादी करवाने।’’
आप गौर करेगे कि यह काहनी कहने का सामान्य ढंग नहीं है। आमतौर से तो कहानियाँ ‘एक था राजा’ वाली शैली में लिखी जाती हैं। उसे कहने या लिखनेवाला एक ऐसी घटना बयान कर रहा होता जो अतीत में घट चुकी है। इसलिए वह भूतकालीन क्रियापदों का उपयोग करता है-‘‘एक राजा था जो अपनी रानी से बहुत प्यार करता था। लेकिन उसे इस बात का बहुत दुख था कि रानी को कोई संतान न थी।’’
इस हिसाब से तो मेरी भतीजी को कहानी कुछ इस तरह सुनानी चाहिए थी-‘लंदन नगर का भारतीय दुकानदार अमरीशपुरी रूढ़िवादी विचारो का था इसलिए अपनी बेटी काजोल पर कड़ा अंकुश रखता था। काजोल जितना ही उससे डरती थी उतना ही अपनी दयालु माँ फरीदा जलाल से प्यार करती थी। अमरीश चाहता था कि उसकी बेटी भारत में उसके दोस्त के बेटे से शादी करे। मगर काजोल उस शाहरूख खान को दिल दे बैठी थी जिसने उसके पिता को एक दिन नाराज कर दिया था।’’ मगर मेरी भतीजी ने कहानी इस तरह नहीं सुनाई। और वह कोई अपवाद नहीं है। आप किसी से भी किसी फिल्म की कहानी, सुनें, वह मेरी भतीजी वाली शैली में सुनाएगा। कोई यह नहीं कहेगा कि ‘हीरो को गुस्सा आ गया’ या ‘हीरोइन ने जहर पी लिया’ आपको उससे यही सुनने को मिलेगा कि ‘हीरो गुस्सा हो जाता है’, ‘हीरोइन जहर पी लेती है।’ ऐसा इसलिए होता है कि दर्शक फिल्म में घटनाओं को होता हुआ और पात्रों को बोलता हुआ सुनता है। फिल्म में अतीत सतत नहीं, वर्तमान दर्शाया जाता है। इसलिए फिल्म की कहानी सुनाते हुए हम अनिश्चित वर्तमान काल के क्रियापदों का प्रयोग करने लगते हैं। एक राजा था की जगह हम कहते हैं, ‘एक राजा होता है।’
role of indian press
यह वह दौर था, जब लोगों के पास संवाद का कोई साधन नहीं था। उस पर भी अँग्रेजों के अत्याचारों के शिकार असहाय लोग चुपचाप सारे अत्याचर सहते थे। न तो कोई उनकी सुनने वाला था और न उनके दु:खों को हरने वाला। वो कहते भी तो किससे और कैसे? हर कोई तो उसी प्रताड़ना को झेल रहे थे। ऐसे में पत्र-पत्रिकाओं की शुरुआत ने लोगों को हिम्मत दी, उन्हें ढाँढस बँधाया। यही कारण था कि क्रांतिकारियों के एक-एक लेख जनता में नई स्फूर्ति और देशभक्ति का संचार करते थे। भारतेंदु का नाटक ‘भारत-दुर्दशा’ जब प्रकाशित हुआ था तो लोगों को यह अनुभव हुआ था कि भारत के लोग कैसे दौर से गुजर रहे हैं और अँग्रेजों की मंशा क्या है।
अखबार का इतिहास और योगदान: यूँ तो ब्रिटिश शासन के एक पूर्व अधिकारी के द्वारा अखबारों की शुरुआत मानी जाती है, लेकिन उसका स्वरूप अखबारों की तरह नहीं था। वह केवल एक पन्ने का सूचनात्मक पर्चा था। पूर्णरूपेण अखबार बंगाल से 'बंगाल-गजट' के नाम से वायसराय हिक्की द्वारा निकाला गया था। आरंभ में अँग्रेजों ने अपने फायदे के लिए अखबारों का इस्तेमाल किया, चूँकि सारे अखबार अँग्रेजी में ही निकल रहे थे, इसलिए बहुसंख्यक लोगों तक खबरें और सूचनाएँ पहुँच नहीं पाती थीं। जो खबरें बाहर निकलकर आती थीं। उन्हें काफी तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत किया जाता था, ताकि अँग्रेजी सरकार के अत्याचारों की खबरें दबी रह जाएँ। अँग्रेज सिपाही किसी भी क्षेत्र में घुसकर मनमाना व्यवहार करते थे। लूट, हत्या, बलात्कार जैसी घटनाएँ आम होती थीं। वो जिस भी क्षेत्र से गुजरते, वहाँ अपना आतंक फैलाते रहते थे। उनके खिलाफ न तो मुकदमे होते और न ही उन्हें कोई दंड ही दिया जाता था। इन नारकीय परिस्थितियों को झेलते हुए भी लोग खामोश थे। इस दौरान भारत में ‘द हिंदुस्तान टाइम्स’, ‘नेशनल हेराल्ड', 'पायनियर', 'मुंबई-मिरर' जैसे अखबार अँग्रेजी में निकलते थे, जिसमें उन अत्याचारों का दूर-दूर तक उल्लेख नहीं रहता था। इन अँग्रेजी पत्रों के अतिरिक्त बंगला, उर्दू आदि में पत्रों का प्रकाशन तो होता रहा, लेकिन उसका दायरा सीमित था। उसे कोई बंगाली पढ़ने वाला या उर्दू जानने वाला ही समझ सकता था। ऐसे में पहली बार 30 मई, 1826 को हिन्दी का प्रथम पत्र ‘उदंत मार्तंड’ का पहला अंक प्रकाशित हुआ।
यह पत्र साप्ताहिक था। ‘उदंत-मार्तंड' की शुरुआत ने भाषायी स्तर पर लोगों को एक सूत्र में बाँधने का प्रयास किया। यह केवल एक पत्र नहीं था, बल्कि उन हजारों लोगों की जुबान था, जो अब तक खामोश और भयभीत थे। हिन्दी में पत्रों की शुरुआत से देश में एक क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ और आजादी की जंग को भी एक नई दिशा मिली। अब लोगों तक देश के कोने-कोन में घट रही घटनाओं की जानकारी पहुँचने लगी। लेकिन कुछ ही समय बाद इस पत्र के संपादक जुगल किशोर को सहायता के अभाव में 11 दिसंबर, 1827 को पत्र बंद करना पड़ा। 10 मई, 1829 को बंगाल से हिन्दी अखबार 'बंगदूत' का प्रकाशन हुआ। यह पत्र भी लोगों की आवाज बना और उन्हें जोड़े रखने का माध्यम। इसके बाद जुलाई, 1854 में श्यामसुंदर सेन ने कलकत्ता से ‘समाचार सुधा वर्षण’ का प्रकाशन किया। उस दौरान जिन भी अखबारों ने अँग्रेजी हुकूमत के खिलाफ कोई भी खबर या आलेख छपा, उसे उसकी कीमत चुकानी पड़ी। अखबारों को प्रतिबंधित कर दिया जाता था। उसकी प्रतियाँ जलवाई जाती थीं, उसके प्रकाशकों, संपादकों, लेखकों को दंड दिया जाता था। उन पर भारी-भरकम जुर्माना लगाया जाता था, ताकि वो दुबारा फिर उठने की हिम्मत न जुटा पाएँ।
आजादी की लहर जिस तरह पूरे देश में फैल रही थी, अखबार भी अत्याचारों को सहकर और मुखर हो रहे थे। यही वजह थी कि बंगाल विभाजन के उपरांत हिन्दी पत्रों की आवाज और बुलंद हो गई। लोकमान्य तिलक ने 'केसरी' का संपादन किया और लाला लाजपत राय ने पंजाब से 'वंदे मातरम' पत्र निकाला। इन पत्रों ने युवाओं को आजादी की लड़ाई में अधिक-से-अधिक सहयोग देने का आह्वान किया। इन पत्रों ने आजादी पाने का एक जज्बा पैदा कर दिया। ‘केसरी’ को नागपुर से माधवराव सप्रे ने निकाला, लेकिन तिलक के उत्तेजक लेखों के कारण इस पत्र पर पाबंदी लगा दी गई।
उत्तर भारत में आजादी की जंग में जान फूँकने के लिए गणेश शंकर विद्यार्थी ने 1913 में कानपुर से साप्ताहिक पत्र 'प्रताप' का प्रकाशन आरंभ किया। इसमें देश के हर हिस्से में हो रहे अत्याचारों के बारे में जानकारियाँ प्रकाशित होती थीं। इससे लोगों में आक्रोश भड़कने लगा था और वे ब्रिटिश हुकूमत को उखाड़ फेंकने के लिए और भी उत्साहित हो उठे थे। इसकी आक्रामकता को देखते हुए अँग्रेज प्रशासन ने इसके लेखकों, संपादकों को तरह-तरह की प्रताड़नाएँ दीं, लेकिन यह पत्र अपने लक्ष्य पर डटा रहा।
इसी प्रकार बंगाल, बिहार, महाराष्ट्र के क्षेत्रों से पत्रों का प्रकाशन होता रहा। उन पत्रों ने लोगों में स्वतंत्रता को पाने की ललक और जागरूकता फैलाने का प्रयास किया। अगर यह कहा जाए कि स्वतंत्रता सेनानियों के लिए ये अखबार किसी हथियार से कमतर नहीं थे, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
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प्रेस ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया (P T I)-डॉ. दादा भाई नौरोजी रोड बम्बई |यह भारत का सबसे बड़ा अभिकरण है |सन १९४९ में भारत के प्रमुख समाचार पत्रों ने मिलकर असोसिएशन प्रेस ऑफ़ इंडिया को खरीद लिया था ,क्योकि विदेशी शासन काल से कम कर रही ए. पी. आई न्यूज़ एजेंसी ब्रिटिश समाचार अभिकरण रयूटर (reuter ) की भारतीय शाखा मात्र थी|यह स्थिति स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद तो समाप्त हो ही जानी थी और भारतीय समाचार पत्र भी भी इसे विदेशी पत्र के अभाव से मुक्त करना चाहते थे|यह समाचार एजेंसी एशिया महाद्वीप के समाचार अभिकरणों में पहला स्थान रखती है|देश भर में इसके १२० कार्यालय कम कर रहे है |रायटर युनाईटेड प्रेस इंटरनेशनल (UPI)और आजांस फ़्रांस प्रेस (AFP) के साथ भी पीटीआई की खबरों का लेन देन का समबन्ध है| पी टी आई की हिंदी समाचार सेवा भी चलती है जिसे "भाषा" कहते है|यह समाचार अभिकरण की फीचर सर्विस भी बड़ी लोकप्रिय है|टेली प्रिन्टर सर्विस के अलावा यह अजेंसी कम्प्यूटर संगणक की सहायता से भी समाचार देती है|
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Today, we serve more than 1000 subscribers in more than 100 locations in India and abroad. They include newspapers, radio and television networks, web sites , government offices and private and public sector corporations.
Our communication network stretches over 90,000 Km in India and the Gulf states.
We have bureax in all the major cities and towns of India, including all the state capitals. We have more than 325 staff journalists around the country and more than 250 stringers, covering news events from remote corners.
We also have Correspondents in major world cities such as Washington, London, Dubai, Colombo, Kathmandu, Islamabad, Dhaka, Singapore, Sydney and Vancouver, bringing to our subscribers stories of interest to Indian readers..
UNI has collaboration agreements with several foreign news agencies, including Reuters and DPA , whose stories we distribute to media organisations in India. We also have news exchange agreements with Xinhua of China, UNB of Bangladesh, Gulf News Agency of Bahrain, WAM of the United Arab Emirates, KUNA of Kuwait News Agency, ONA of Oman and QNA of Qatar.
UNI is currently a major modernisation programme as part of which most of our major bureax are already linked through a computerised network. We are continuously expanding and extending this network. We are also in the process of implementing a project to deliver news, pictures and graphics to our subscribers through the Internet, using NewsML, the international standard for news transmission.
UNI's wire service is available in three languages -- English, Hindi and Urdu. We launched UNIVARTA in Hindi in 1982 and pioneered a wire service in Urdu in 1992. In 1981, we became the first Indian news agency to serve subscribers abroad and earn foreign exchange for the country by selling its wire service directly to newspapers in the gulf States and in Singapore through satellite channels.
UNI has always adopted an innovative approach. We were the first news agency in the country to launch a Financial Service, a Stock Exchange service and a National Photoservice.We also have other services like UNIDARSHAN (Television News Clips and Features), UNISCAN (News Display on Television sets for Hotels, top Government officials and corporate clients), UNIDirect (for top executives in the government, corporate and other sectors) and UNI GRAPHICS (Computer-designed Graphics in ready-to-use form).
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Previously available to only a select few, the agency's resources are now available to anyone who is interested, both within and outside Russia; the mass media, academic institutions, organizations and private individuals.
To better serve a rapidly growing number of subscribers, the agency has developed a new set priorities designed to streamline and improve key aspects of its operation: how topics are selected, expansion of news coverage, and timely delivery of news on the wire. As the very nature of news production continues to evolve, the agency will continually make use of the very latest available technologies in order to make real-time news distribution faster and more efficient.
ITAR-TASS relies on a widespread net of correspondents. Currently, It has more than 130 bureaus and offices in Russia and abroad. ITAR-TASS also cooperates with more than 80 foreign news agencies. ITAR-TASS' editorial and other desks process information from correspondents, check and analyze facts, and translate into five foreign languages.
ITAR-TASS has accumulated a rich body of experience throughout the course of its 100-year history. The agency's widespread network of correspondents, its modern means of distributing and storing information, and a well-oiled mechanism of cooperation between its editorial, reference and reporter departments, all enable ITAR-TASS to provide quick and full coverage of all kinds of events shaping Russia and the world.
ITAR-TASS offers today 45 round-the-clock news cycles in six languages and more than 40 information bulletins.
The agency also operates a photo service, the largest of its kind in Russia. This unique service offers pictures of the latest breaking developments, available for prompt transmission in digital form. Clients also have access to an extremely rich photo archive dating back to the beginning of the 20th century.
Also available is the INFO-TASS electronic data bank, which contains all agency materials produced since 1987, multimedia products, and unique reference books on Russia and other CIS member states, which are regularly updated. On a daily basis, ITAR-TASS produces and transmits to its subscribers around the world materials that can cover 300 newspaper pages.
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Today, we serve more than 1000 subscribers in more than 100 locations in India and abroad. आज, हम विदेशों में भारत का स्थान और 100 में और अधिक ग्राहकों की सेवा से कम 1000 से अधिक. They include newspapers, radio and television networks, web sites , government offices and private and public sector corporations. वे निगमों में शामिल समाचार पत्रों, रेडियो और टेलीविजन नेटवर्क, वेब साइटों, सरकारी कार्यालयों और निजी और सार्वजनिक क्षेत्र.
Our communication network stretches over 90,000 Km in India and the Gulf states. हमारे संचार नेटवर्क राज्यों खाड़ी 90000 किलोमीटर पर फैला में भारत और.
We have bureax in all the major cities and towns of India, including all the state capitals. हम राज्य की राजधानियों bureax है में सभी प्रमुख शहरों और कस्बों के सभी सहित भारत,. We have more than 325 staff journalists around the country and more than 250 stringers, covering news events from remote corners. हम कोनों से अधिक है चारों ओर पत्रकारों 325 कर्मचारियों को देश से अधिक और 250 दूरदराज से समाचार घटनाओं को कवर stringers,.
We also have Correspondents in major world cities such as Washington, London, Dubai, Colombo, Kathmandu, Islamabad, Dhaka, Singapore, Sydney and Vancouver, bringing to our subscribers stories of interest to Indian readers.. हम भी वैंकूवर और सिडनी, सिंगापुर, ढाका, है संवाददाताओं में प्रमुख शहरों जैसे दुनिया वाशिंगटन, लंदन, दुबई, कोलंबो, काठमांडू, इस्लामाबाद, पाठकों के ग्राहकों को लाने की कहानियाँ हमारे लिए भारतीय हित के लिए ..
UNI has collaboration agreements with several foreign news agencies, including Reuters and DPA , whose stories we distribute to media organisations in India. विश्वविद्यालय भारत में मीडिया संगठनों है कथाएँ हम वितरित करने के लिए, जिनके सहयोग समझौते के साथ कई विदेशी समाचार डीपीए और सहित रायटर, एजेंसियों. We also have news exchange agreements with Xinhua of China, UNB of Bangladesh, Gulf News Agency of Bahrain, WAM of the United Arab Emirates, KUNA of Kuwait News Agency, ONA of Oman and QNA of Qatar. हम भी कतर और ओमान QNA की मुद्रा खबर है समझौतों के ona साथ सिन्हुआ समाचार एजेंसी, कुवैत की चीन की खाड़ी, UNB की बांग्लादेश समाचार एजेंसी कुना से बहरीन,, अमीरात WAM के संयुक्त अरब.
UNI is currently a major modernisation programme as part of which most of our major bureax are already linked through a computerised network. विश्वविद्यालय नेटवर्क है प्रमुख आधुनिकीकरण कार्यक्रम के रूप में एक वर्तमान का हिस्सा है जो सबसे ज्यादा हमारे प्रमुख के कम्प्यूटरीकृत bureax एक के माध्यम से पहले से ही जुड़ा हुआ है. We are continuously expanding and extending this network. हम कर रहे हैं और लगातार विस्तार नेटवर्क का विस्तार इस. We are also in the process of implementing a project to deliver news, pictures and graphics to our subscribers through the Internet, using NewsML, the international standard for news transmission. हम प्रसारण खबर के लिए अंतरराष्ट्रीय मानक के ग्राफिक्स रहे हैं और भी तस्वीरें परियोजना देने के लिए खबर है, एक के कार्यान्वयन की प्रक्रिया में करने के लिए, हमारे ग्राहकों, का उपयोग NewsML इंटरनेट के माध्यम से.
UNI's wire service is available in three languages -- English, Hindi and Urdu. तीन भाषाओं - उर्दू और हिन्दी, अंग्रेजी उपलब्ध यूएनआई तार है सेवा है. We launched UNIVARTA in Hindi in 1982 and pioneered a wire service in Urdu in 1992. हम शुरू UNIVARTA 1982 में हिन्दी में और एक तार सेवा का बीड़ा उठाया उर्दू 1992 में. In 1981, we became the first Indian news agency to serve subscribers abroad and earn foreign exchange for the country by selling its wire service directly to newspapers in the gulf States and in Singapore through satellite channels. 1981 में, हम एजेंसी बन गया पहला भारतीय समाचार करने के लिए विदेश में सेवा करते हैं ग्राहकों और चैनलों के माध्यम से उपग्रह सिंगापुर और अमेरिका में विदेशी मुद्रा कमाने के लिए तार इसकी अखबारों सेवा सीधे खाई में बेचने के देश से.
UNI has always adopted an innovative approach. यूएनआई दृष्टिकोण है अभिनव हमेशा अपनाया एक. We were the first news agency in the country to launch a Financial Service , a Stock Exchange service and a National Photo service.We also have other services like UNIDARSHAN (Television News Clips and Features), UNISCAN (News Display on Television sets for Hotels, top Government officials and corporate clients), UNI Direct हम देश समाचार एजेंसी में पहले किए गए के लिए एक लांच वित्तीय सेवा , एक स्टॉक एक्सचेंज सेवा और एक राष्ट्रीय फोटो service.We भी UNIDARSHAN सेवाओं जैसे अन्य है (टेलीविजन समाचार क्लिप्स और सुविधाएँ) पर सेट टेलीविजन के लिए होटलों के प्रदर्शन (समाचार UNISCAN, शीर्ष सरकारी अधिकारियों और कॉर्पोरेट ग्राहकों), विश्वविद्यालय प्रत्यक्ष (for top executives in the government, corporate and other sectors) and UNI GRAPHICS (Computer-designed Graphics in ready-to-use form). (सेक्टर और अन्य कंपनियों के लिए आला अधिकारियों में सरकार) और यूएनआई ग्राफिक्स (कंप्यूटर फार्म का उपयोग करें डिजाइन ग्राफिक्स में तैयार करने के लिए).
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PTI correspondents are also based in leading capitals and important business and administrative centres around the world. It also has exchange arrangements with several foreign news agencies to magnify its global news footprint.
Currently, PTI commands 90 per cent of new agency market share in India.
PTI was registered in 1947 and started functioning in 1949. Today, after 60 years of its service, PTI can well and truly take pride in the legacy of its work, and in its contribution towards the building of a free and fair Press in India. On its golden jubilee in 1999, President K R Narayanan said: “We got independence in August 1947. But independence in news and information we got only with the establishment of PTI in 1949. That is the significance of PTI…”
Administrative & Managerial Composition
PTI is run by a Board of Directors with the Chairmanship going by rotation at the Annual General Meeting. The day-to-day administration and management of PTI is headed by the Chief Executive Officer (who is also the Editor-in-Chief).
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PTI correspondents are also based in leading capitals and important business and administrative centres around the world. पीटीआई संवाददाताओं भी प्रमुख राजधानियों और महत्वपूर्ण व्यापार और दुनिया भर के प्रशासनिक केंद्र में आधारित हैं. It also has exchange arrangements with several foreign news agencies to magnify its global news footprint. यह भी कई विदेशी समाचार एजेंसियों के साथ विनिमय की व्यवस्था है अपने वैश्विक पदचिह्न खबर बढ़ाना.
Currently, PTI commands 90 per cent of new agency market share in India. वर्तमान में, पीटीआई नई एजेंसी शेयर बाजार के भारत में 90 प्रतिशत हासिल है.
PTI was registered in 1947 and started functioning in 1949. पीटीआई 1947 में पंजीकृत किया गया और 1949 में कार्य शुरू कर दिया. Today, after 60 years of its service, PTI can well and truly take pride in the legacy of its work, and in its contribution towards the building of a free and fair Press in India. आज, अपने सेवा के 60 वर्षों के बाद, पीटीआई अच्छी तरह से और सही मायने में अपने काम की विरासत पर गर्व कर सकते हैं, और भारत में एक स्वतंत्र और निष्पक्ष प्रेस के निर्माण के प्रति अपने योगदान में. On its golden jubilee in 1999, President KR Narayanan said: “We got independence in August 1947. इसके 1999 में स्वर्ण जयंती को राष्ट्रपति के.आर. नारायणन ने कहा: "हम अगस्त 1947 में आजादी मिली. But independence in news and information we got only with the establishment of PTI in 1949. लेकिन खबर में स्वतंत्रता और सूचना के हम 1949 में भाषा की स्थापना के साथ ही मिला है. That is the significance of PTI…” कि पीटीआई का महत्व है ... "
Administrative & Managerial Composition प्रशासनिक और प्रबंधकीय संरचना
PTI is run by a Board of Directors with the Chairmanship going by rotation at the Annual General Meeting. पीटीआई अध्यक्षता वार्षिक जनरल में रोटेशन से जा रही बैठक से निदेशकों की एक बोर्ड द्वारा संचालित है. The day-to-day administration and management of PTI is headed by the Chief Executive Officer (who is also the Editor-in-Chief). दिन को दिन और पीटीआई के प्रशासन के प्रबंधन के मुख्य कार्यकारी अधिकारी के नेतृत्व में है (जो भी है संपादक इन चीफ में)
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PRIME-TASS is Russia's leading business news agency. प्रधान-TASS रूस के प्रमुख बिजनेस समाचार एजेंसी है. Privately owned, the agency has no political affiliations, and is known for its objective coverage worldwide. निजी स्वामित्व, एजेंसी नहीं राजनीतिक जुड़ाव है, और अपने उद्देश्य दुनिया भर में कवरेज के लिए जाना जाता है. With about 250 permanent staff and scores of stringers across Russia, the Commonwealth of Independent States and the world, we provide quality live coverage of major economic and political news in Russia and the 14 former Soviet states. के बारे में 250 स्थायी कर्मचारियों और रूस भर stringers के स्कोर के साथ, स्वतंत्र राज्यों और दुनिया के राष्ट्रमंडल, हम रूस में प्रमुख आर्थिक और राजनीतिक समाचार और 14 पूर्व सोवियत राज्यों की गुणवत्ता रहते कवरेज प्रदान करते हैं. We are particularly strong in commodity, energy and financial markets coverage. हम विशेष रूप से वस्तु, ऊर्जा और वित्तीय बाजारों कवरेज में मजबूत हैं. We also offer excellent coverage of Russian and CIS banking and corporate news. हम भी रूसी और सीआईएस बैंकिंग और कॉर्पोरेट समाचार के उत्कृष्ट कवरेज प्रदान करते हैं. The Russian- language service puts out over 400 news and analysis pieces daily. रूसी भाषा सेवा 400 समाचार और विश्लेषण दैनिक टुकड़े पर बाहर डालता है.
PRIME-TASS was created in 1996 with Russia's state news agency Itar-Tass taking a 35% stake. प्रधान-TASS 1996 में रूस की राज्य समाचार एजेंसी ITAR-Tass एक 35% हिस्सेदारी लेने के साथ बनाया गया था. While the agency distributes exclusive information from the Russian government, the Central Bank and the parliament, our editorial policy is completely independent. जबकि एजेंसी रूसी सरकार की ओर से विशेष जानकारी वितरित करता है, सेंट्रल बैंक और संसद, हमारी संपादकीय नीति पूरी तरह से स्वतंत्र है. Our opinion pieces and analyses are based on attributed comments by leading analysts. हमारी राय टुकड़े और विश्लेषण प्रमुख विश्लेषकों ने जिम्मेदार ठहराया टिप्पणियों पर आधारित हैं. While we do cover major political news, economic and market news is our priority. जब तक हम प्रमुख राजनीतिक समाचार, कवर करते हैं आर्थिक और बाजार खबर हमारी प्राथमिकता है. Among our subscribers are foreign embassies and trade missions, major domestic and foreign investment banks, commodity traders and thousands of Russian and foreign companies. हमारे ग्राहकों में विदेशी दूतावासों और व्यापार मिशन, प्रमुख घरेलू और विदेशी निवेश बैंकों, जिंस व्यापारियों और रूसी और विदेशी कंपनियों के हजारों रहे हैं. We are one of the most frequently quoted Russian business newswires worldwide. हम एक सबसे अक्सर उद्धृत रूसी व्यापार दुनिया भर में newswires से एक हैं. All major international news agencies and business publications are among our subscribers. सभी प्रमुख अंतरराष्ट्रीय समाचार एजेंसियों और व्यवसाय प्रकाशनों हमारे ग्राहकों में से हैं. In June 2003 PRIME-TASS announced a content exchange and sales partnership with Dow Jones Newswires, the world's leading provider of real-time business and financial news. जून 2003 में प्रधानमंत्री-TASS एक सामग्री और डो जोंस Newswires, दुनिया का वास्तविक समय व्यापार और वित्तीय समाचार के अग्रणी प्रदाता के साथ बिक्री भागीदारी विनिमय की घोषणा की. Under the terms of the agreement, the partners distribute, market and sell the other's products in their respective markets. समझौते की शर्तों के तहत, भागीदारों वितरित, बाजार और उनके संबंधित बाजार में दूसरे के उत्पाद बेचते हैं. In February 2004 PRIME-TASS together with Dow Jones Newswires launched DJ Forex, the first Russian-language news service to focus on the foreign exchange markets. फरवरी 2004 में प्रधान, डो जोंस Newswires के साथ मिलकर TASS डीजे विदेशी मुद्रा, पहले रूसी भाषा के समाचार को विदेशी मुद्रा बाजारों पर ध्यान केंद्रित सेवा का शुभारंभ किया. The service is targeted at Russians actively trading in currencies, including foreign exchange traders, customers of bank foreign exchange trading portals and corporate treasury departments. सेवा रूसियों को सक्रिय रूप से व्यापार में मुद्राओं में लक्षित है विदेशी मुद्रा व्यापारियों, बैंक विदेशी मुद्रा व्यापार और कॉर्पोरेट पोर्टल्स राजकोष विभाग के ग्राहकों को भी शामिल है.
PRIME-TASS' English language service publishes over 100 news and analysis pieces daily. प्रधान 'TASS अंग्रेजी भाषा सेवा के 100 समाचार और विश्लेषण के टुकड़े दैनिक पर प्रकाशित करता है. News is produced by Western-educated Russian translators, reporters and editors with years of experience in Western news organizations. समाचार पश्चिमी शिक्षित रूसी अनुवादक पत्रकारों और संपादकों ने पश्चिमी समाचार संगठनों में अनुभव के वर्षों के साथ उत्पादन किया है. Native speakers professionally edit the stories. देशी वक्ताओं पेशेवर कहानियों को संपादित करें. The PRIME-TASS English-language service does not translate but rewrites and adapts Russian stories for our clients and produces dozens of original stories and analytical pieces daily. प्रधान-TASS अंग्रेजी भाषा अनुवाद सेवा नहीं बल्कि पुनर्लेखनों और हमारे ग्राहकों के लिए रूसी कहानियों adapts और मूल कहानियों और विश्लेषणात्मक टुकड़े के दर्जनों दैनिक उत्पादन करता है. The Russian-language and English-language wires are synchronized so that major news in Russian and English appear at almost the same time. रूसी भाषा और अंग्रेजी भाषा के तार तो सिंक्रनाइज़ कर रहे हैं कि रूसी और अंग्रेजी में प्रमुख समाचार लगभग एक ही समय में दिखाई देते हैं. Many English-language stories and features never appear on the Russian wire. कई अंग्रेजी भाषा की कहानियाँ और सुविधाओं कभी नहीं रूसी तार पर दिखाई देते हैं. Besides the newswire the English-language service also publishes the PRIME-TASS News Daily compiled from the reports of 100 PRIME-TASS journalists based in Russia and the CIS and the Russian Connection weekly bulletin covering Russia's telecom sector. newswire के अलावा अंग्रेजी भाषा सेवा भी प्रधान-TASS समाचार 100 PRIME-TASS पत्रकारों की रिपोर्ट रूस और सीआईएस और रूसी कनेक्शन साप्ताहिक रूस की दूरसंचार क्षेत्र को कवर बुलेटिन में आधारित से संकलित दैनिक प्रकाशित करता है.
indian press
The country consumed 99 million newspaper copies as of 2007—making it the second largest market in the world for newspapers.[4] By 2009, India had a total of 81,000,000 Internet users—comprising 7.0% of the country's population,[5] and 7,570,000 people in India also had access tobroadband Internet as of 2010— making it the 11th largest country in the world in terms of broadband Internet users.[6] As of 2009, India is among the 4th largest television broadcast stations in the world with nearly 1,400 stations.[7]
The organization Reporters Without Borders compiles and publishes an annual ranking of countries based upon the organization's assessment of their press freedom records. In 2010 India was ranked 122nd of 178th countries, which was a setback from the preceding year
Main articles: Print media in India, List of newspapers in India, and List of newspapers in India by circulation
Further information: Press Trust of India, United News of India, and Category:Indian magazines
The first major newspaper in India—The Bengal Gazette—was started in 1780 under the British Raj.[2]Other newspapers such as The India Gazette, The Calcutta Gazette, The Madras Courier (1785), The Bombay Herald (1789) etc. soon followed.[2] These newspapers carried news of the areas under the British rule.[2] The Times of India was founded in 1838 as The Bombay Times and Journal of Commerce by Bennett, Coleman and Company, a colonial enterprise now owned by an Indian conglomerate.[9] The Times Group publishes The Economic Times (launched in 1961), Navbharat Times (Hindi language), and theMaharashtra Times (Marathi language).[9]
During the 1950s 214 daily newspapers were published in the country.[2] Out of these, 44 were English language dailies while the rest were published in various regional languages.[2] This number rose to 2,856 dailies in 1990 with 209 English dailies.[2] The total number of newspapers published in the country reached 35,595 newspapers by 1993 (3,805 dailies).[2]
The main regional newspapers of India include the Malayalam language Malayala Manorama (published from: Kerala, daily circulation: 673,000), the Hindi-language Dainik Jagran(published from: Uttar Pradesh, daily circulation in 2006: 580,000), and the Anandabazar Patrika (published from: Kolkata, daily circulation in 2006: 435,000).[10] The Times of India Group, the Indian Express Group, the Hindustan Times Group, and the Anandabazar Patrika Group are the main print media houses of the country.[10]
Newspaper sale in the country increased by 11.22% in 2007.[4] By 2007, 62 of the world's best selling newspaper dailies were published in China, Japan, and India.[4] India consumed 99 million newspaper copies as of 2007—making it the second largest market in the world for newspapers.[4]
Main articles: Amateur radio in India, Television in India, and :Category:Amateur radio in India
Further information: List of Indian television stations and List of FM radio stations in India
Radio broadcasting was initiated in 1927 but became state responsibility only in 1930.[11] In 1937 it was given the name All India Radio and since 1957 it has been called Akashvani.[11] Limited duration of television programming began in 1959, and complete broadcasting followed in 1965.[11]The Ministry of Information and Broadcasting owned and maintained the audio-visual apparatus—including the television channel Doordarshan—in the country prior to the economic reforms of 1991.[10] The Government of India played a significant role in using the audio-visual media for increasing mass education in India's rural swathes.[2] Projected television screens provided engaging education in India's villages by the 1990s.[2]
Following the economic reforms satellite television channels from around the world—including BBC, CNN, CNBC, PTV, and other foreign television channels gained a foothold in the country.[12] 47 million household with television sets emerged in 1993, which was also the year when Rupert Murdoch entered the Indian market.[13] Satellite and cable television soon gained a foothold.[13] Doordarshan, in turn, initiated reforms and modernization.[13] With 1,400 television stations as of 2009, the country ranks 4th in the list of countries by number of television broadcast stations.[7]
On November 16, 2006, the Government of India released the community radio policy which allowed agricultural centers, educational institutions and civil society organizations to apply for community based FM broadcasting license. Community Radio is allowed 100 Watt Effective Radiated Power (ERP) with a maximum tower height of 30 meters. The license is valid for five years and one organization can only get one license, which is non-transferable and to be used for community development purposes. The Universities of the country has initiated Courses on Journalism. In West Bengal Calcutta University, Vidyasagar University etc. are running such courses. The students of Vidyasagar University are running a lab journal : Samokaal .
[edit]Communications
Main articles: Information technology in India and Communications in India
Further information: List of mobile network operators of India
The Indian Government acquired the EVS EM computers from the Soviet Union, which were used in large companies and research laboratories.[14] Tata Consultancy Services — established in 1968 by the Tata Group — were the country's largest software producers during the 1960s.[14] The 'microchip revolution' of the 1980s had convinced both Indira Gandhi and her successor Rajiv Gandhi that electronics and telecommunications were vital to India's growth and development.[15] MTNL underwent technological improvements.[15] Between 1986-1987, the Indian government embarked upon the creation of three wide-area computer networking schemes: INDONET (intended to serve the IBM mainframes in India), NICNET (network for the National Informatics Centre), and the academic research oriented Education and Research Network (ERNET).[16]
The Indian economy underwent economic reforms in 1991, leading to a new era of globalization and international economic integration.[17] Economic growth of over 6% annually was seen between 1993-2002.[17] The economic reforms were driven in part by significant the internet usage in India.[18] The new administration under Atal Bihari Vajpayee—which placed the development of Information Technology among its top five priorities— formed the Indian National Task Force on Information Technology and Software Development.[19] Internet gained a foothold in India by 1996.[14] India had a total of 81,000,000 Internet users—comprising 7.0% of the country's population—by 2009.[5] By 2009, 7,570,000 million people in India also had access to broadband Internet— making it the 12th largest country in the world in terms of broadband Internet users.[6]
India had a total of 37,160,000 telephone lines in use by 2009.[20] In the fixed line arena, BSNL and MTNL are the incumbents in their respective areas of operation and continue to enjoy the dominant service provider status in the domain of fixed line services.[21] BSNL controls 79% of fixed line share in the country.[21]
In the mobile telephony sector, Bharti Airtel controls 24.3% subscriber base followed by Reliance Communications with 18.9%, Vodafone with 18.8%, BSNL with 12.7% subscriber base as of June-2009.[21] India had a total of 525,657,000 mobile phone connections by 2009.[22] Total fixed-line and wireless subscribers reached 688 million as of August 2010.[23]
[edit]Cinema
Main article: Cinema of India
The history of film in India begins with the screening of Auguste and Louis Lumière moving pictures in Bombay during the July of 1895.[24] Raja Harishchandra—a full length feature film—was initiated in 1912 and completed later.[24] Alam Ara (released 14 March 1931) —directed by Ardeshir Irani—was the first Indian movie with dialogs.[25]
Indian films were soon being followed throughout Southeast Asia and the Middle East—where modest dressing and subdued sexuality of these films was found to be acceptable to the sensibilities of the audience belonging to the various Islamic countries of the region.[26] As cinema as a medium gained popularity in the country as many as 1, 000 films in variouslanguages of India were produced annually.[26] Hollywood also gained a foothold in India with special effects films such as Jurassic Park (1993) and Speed (1994) being specially appreciated by the local audiences.[26] Expatriates throughout the United Kingdom and in the United States continued to give rise to an international audiences to Indian movies, which—according to The Encyclopædia Britannica (2008) entry on Bollywood—'continued to be formulaic story lines, expertly choreographed fight scenes, spectacular song-and-dance routines, emotion-charged melodrama, and larger-than-life heroes.'[27]
role of press
half way through when his own end came. C.Y. Chintamani wrote on Indian politics but nothing on journalism. Even books on Indian journalism are few and far between. It may be said of Indian editors that as a rule they work themselves to death in the profession, caring all the time for the life and well-being of the people but paying little or no attention to the intellectual needs of those who are engaged in the profession or are desirous of entering it.
"The public in India know very little of the journalists, while even politicians have only an imperfect appreciation of their difficulties. The setting up of the All-India Newspaper Editors’ Conference and the publication of its periodical proceedings have made the politicians as well as the public realize in a general way that pressmen have their own problems concerning the people and the Government. The Nehru-Liaqat Agreement of April 1950 has been followed by a joint session of the Standing Committees of the All-India Newspaper Editors’ Conference and of the Pakistan Newpeper Editors’ Conference held in New Delhi, at which a complete understanding was reached as to the measures necessary to implement the Agreement so far as the pressmen of both the countries are concerned. This itself is the most significant development for which 1950 will be memorable in the annals of journalism as in the field of politics or statesmanship, bringing into bolder relief the close relationship between the Government and the Press in the interests of democracy and people’s welfare.
"It falls to but a few even among journalists to witness and record all the various political and other developments in the concentrated atmosphere at India’s Capital and also at the annual or special sessions of the Indian National Congress, the Muslim League and other political organizations. What I have attempted in this volume is a narration of the more important of my journalistic reminiscences spread over the past 35 years, i.e. from 1915 to 1950—a period of fast-changing scenes under the Gandhian leadership during which it was my privilege to serve as Editor of Reuters and the Associated Press (now known as the Press Trust) of India, and till very recently as the Principal Information Officer of the Government of India. On the canvas of these memoirs may be seen many newsreels and snapshots of incidents and personalities caught amid colourful scenes which may be of interest to students of Indian history or politics, besides the journalists. But objectivity has been the guiding principle throughout my narrative of anecdotes or impressions.
"I must express my greatful thanks to the Director General, All-India Radio, for permission to use some of my broadcasts, and to the editor, Roy’s Weekly, New Delhi, for the liberty to quote from some of my contributions as a political commentator published in the journal during and after the Cripps Mission of 1942, as the latter provide a fitting background to the many scenes that India witnessed four years later with the arrival of the British Cabinet Mission, resulting eventually in the withdrawal of British rule from the land of the Mahatma in August 1947 and the establishment of India as a Sovereign Democratic Republic under the Constitution of 1950". (jacket
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yeasr:years
manner of articulation
One parameter of manner is stricture, that is, how closely the speech organs approach one another. Parameters other than stricture are those involved in the r-like sounds (taps and trills), and the sibilancy of fricatives. Often nasality and laterality are included in manner, but phoneticians such as Peter Ladefoged consider them to be independent.
Contents [hide]
1 Stricture
2 Other parameters
3 Individual manners
4 Broader classifications
5 Other airstream initiations
6 See also
7 References
8 External links
[edit]Stricture
From greatest to least stricture, speech sounds may be classified along a cline as stop consonants (with occlusion, or blocked airflow), fricative consonants (with partially blocked and therefore strongly turbulent airflow), approximants (with only slight turbulence), and vowels (with full unimpeded airflow). Affricates often behave as if they were intermediate between stops and fricatives, but phonetically they are sequences of stop plus fricative.
Historically, sounds may move along this cline toward less stricture in a process called lenition. The reverse process is fortition.
[edit]Other parameters
Sibilants are distinguished from other fricatives by the shape of the tongue and how the airflow is directed over the teeth. Fricatives at coronal places of articulation may be sibilant or non-sibilant, sibilants being the more common.
Taps and flaps are similar to very brief stops. However, their articulation and behavior is distinct enough to be considered a separate manner, rather than just length.[specify]
Trills involve the vibration of one of the speech organs. Since trilling is a separate parameter from stricture, the two may be combined. Increasing the stricture of a typical trill results in a trilled fricative. Trilled affricates are also known.
Nasal airflow may be added as an independent parameter to any speech sound. It is most commonly found in nasal stops and nasal vowels, but nasal fricatives, taps, and approximants are also found. When a sound is not nasal, it is called oral. An oral stop is often called a plosive,while a nasal stop is generally just called a nasal.
Laterality is the release of airflow at the side of the tongue. This can also be combined with other manners, resulting in lateral approximants (the most common), lateral flaps, and lateral fricatives and affricates.
[edit]Individual manners
Plosive, or oral stop, where there is complete occlusion (blockage) of both the oral and nasal cavities of the vocal tract, and therefore no air flow. Examples include English /p t k/ (voiceless) and /b d g/ (voiced). If the consonant is voiced, the voicing is the only sound made during occlusion; if it is voiceless, a plosive is completely silent. What we hear as a /p/ or /k/ is the effect that the onset of the occlusion has on the preceding vowel, as well as therelease burst and its effect on the following vowel. The shape and position of the tongue (the place of articulation) determine the resonant cavity that gives different plosives their characteristic sounds. All languages have plosives.
Nasal stop, usually shortened to nasal, where there is complete occlusion of the oral cavity, and the air passes instead through the nose. The shape and position of the tongue determine the resonant cavity that gives different nasal stops their characteristic sounds. Examples include English /m, n/. Nearly all languages have nasals, the only exceptions being in the area of Puget Sound and a single language on Bougainville Island.
Fricative, sometimes called spirant, where there is continuous frication (turbulent and noisy airflow) at the place of articulation. Examples include English /f, s/ (voiceless), /v, z/ (voiced), etc. Most languages have fricatives, though many have only an /s/. However, the Indigenous Australian languages are almost completely devoid of fricatives of any kind.
Sibilants are a type of fricative where the airflow is guided by a groove in the tongue toward the teeth, creating a high-pitched and very distinctive sound. These are by far the most common fricatives. Fricatives at coronal (front of tongue) places of articulation are usually, though not always, sibilants. English sibilants include /s/ and /z/.
Lateral fricatives are a rare type of fricative, where the frication occurs on one or both sides of the edge of the tongue. The "ll" of Welsh and the "hl" of Zulu are lateral fricatives.
Affricate, which begins like a plosive, but this releases into a fricative rather than having a separate release of its own. The English letters "ch" and "j" represent affricates. Affricates are quite common around the world, though less common than fricatives.
Flap, often called a tap, is a momentary closure of the oral cavity. The "tt" of "utter" and the "dd" of "udder" are pronounced as a flap in North American English. Many linguists distinguish taps from flaps, but there is no consensus on what the difference might be. No language relies on such a difference. There are also lateral flaps.
Trill, in which the articulator (usually the tip of the tongue) is held in place, and the airstream causes it to vibrate. The double "r" of Spanish "perro" is a trill. Trills and flaps, where there are one or more brief occlusions, constitute a class of consonant called rhotics.
Approximant, where there is very little obstruction. Examples include English /w/ and /r/. In some languages, such as Spanish, there are sounds which seem to fall between fricativeand approximant.
One use of the word semivowel, sometimes called a glide, is a type of approximant, pronounced like a vowel but with the tongue closer to the roof of the mouth, so that there is slight turbulence. In English, /w/ is the semivowel equivalent of the vowel /u/, and /j/ (spelled "y") is the semivowel equivalent of the vowel /i/ in this usage. Other descriptions usesemivowel for vowel-like sounds that are not syllabic, but do not have the increased stricture of approximants. These are found as elements in diphthongs. The word may also be used to cover both concepts.
Lateral approximants, usually shortened to lateral, are a type of approximant pronounced with the side of the tongue. English /l/ is a lateral. Together with the rhotics, which have similar behavior in many languages, these form a class of consonant called liquids.
[edit]Broader classifications
Manners of articulation with substantial obstruction of the airflow (plosives, fricatives, affricates) are called obstruents. These are prototypically voiceless, but voiced obstruents are extremely common as well. Manners without such obstruction (nasals, liquids, approximants, and also vowels) are called sonorants because they are nearly always voiced. Voiceless sonorants are uncommon, but are found in Welsh and Classical Greek (the spelling "rh"), in Tibetan (the "lh" of Lhasa), and the "wh" in those dialects of English which distinguish "which" from "witch".
Sonorants may also be called resonants, and some linguists prefer that term, restricting the word 'sonorant' to non-vocoid resonants (that is, nasals and liquids, but not vowels or semi-vowels). Another common distinction is between stops (plosives and nasals) and continuants (all else); affricates are considered to be both, because they are sequences of stop plus fricative.
[edit]Other airstream initiations
All of these manners of articulation are pronounced with an airstream mechanism called pulmonic egressive, meaning that the air flows outward, and is powered by the lungs (actually the ribs and diaphragm). Other airstream mechanisms are possible. Sounds that rely on some of these include:
Ejectives, which are glottalic egressive. That is, the airstream is powered by an upward movement of the glottis rather than by the lungs or diaphragm. Plosives, affricates, and occasionally fricatives may occur as ejectives. All ejectives are voiceless.
Implosives, which are glottalic ingressive. Here the glottis moves downward, but the lungs may be used simultaneously (to provide voicing), and in some languages no air may actually flow into the mouth. Implosive oral stops are not uncommon, but implosive affricates and fricatives are rare. Voiceless implosives are also rare.
Clicks, which are velaric ingressive. Here the back of the tongue is used to create a vacuum in the mouth, causing air to rush in when the forward occlusion (tongue or lips) is released. Clicks may be oral or nasal, stop or affricate, central or lateral, voiced or voiceless. They are extremely rare in normal words outside Southern Africa. However, English has a click in its "tsk tsk" (or "tut tut") sound, and another is often used to say "giddy up" to a horse
Pronunciation
Main article: Scottish Gaelic phonology
Most varieties of Gaelic have between 8 and 9 cardinal vowels ([i e ɛ a o ɔ u ɤ ɯ]) that can be either long or short. There are also two reduced vowels ([ə ɪ]) which only occur short. Although some vowels are strongly nasal, instances of distinctive nasality are rare. There are about nine diphthongs and a few triphthongs.
Most consonants have both palatal and non-palatal counterparts, including a very rich system of liquids, nasals and trills (i.e. 3 contrasting l sounds, 3 contrasting n sounds and 3 contrasting r sounds). The historically voiced stops [b d̪ ɡ] have lost their voicing, so the phonemic contrast today is between unaspirated [p t̪ k] and aspirated [pʰ t̪ʰ kʰ]. In many dialects, these stops may however gain voicing through secondary articulation through a preceding nasal, for examples doras [t̪ɔɾəs̪] "door" but an doras "the door" as [ən̪ˠ d̪ɔɾəs̪] or [ə n̪ˠɔɾəs̪].
In some fixed phrases, these changes are shown permanently, as the link with the base words has been lost, as in an-dràsta "now", from an tràth-sa "this time/period".
In medial and final position, the aspirated stops are preaspirated rather than aspirated
उच्चारण
जिस प्रकार से कोई शब्द बोला जाता है; या कोई भाषा बोली जाती है; या कोई व्यक्ति किसी शब्द को बोलता है; उसे उसका उच्चारण (pronunciation)" कहते हैं। भाषाविज्ञान में उच्चारण के शास्त्रीय अध्ययन कोध्वनिविज्ञान की संज्ञा दी जाती है। भाषा के उच्चारण की ओर तभी ध्यान जाता है जब उसमें कोई असाधारणता होती है, जैसे (क) बच्चों का हकलाकर या अशुद्ध बोलना, (ख) विदेशी भाषा को ठीक न बोल सकना, (ग) अपनी मातृभाषा के प्रभाव के कारण साहित्यिक भाषा के बोलने की शैली का प्रभावित होना, आदि।
विभिन्न लोग या विभिन्न समुदाय एक ही शब्द को अलग-अलग तरीके से बोलते हैं। किसी शब्द को बोलने का ढ़ंग कई कारकों पर निर्भर करता है। इन कारकों में प्रमुख हैं - किस क्षेत्र में व्यक्ति रहकर बड़ा हुआ है; व्यक्ति में कोई वाक्-विकार है या नहीं; व्यक्ति का सामाजिक वर्ग; व्यक्ति की शिक्षा, आदि
देवनागरी आदि लिपियों में लिखे शब्दों का उच्चारण नियत होता है किन्तु रोमन, उर्दू आदि लिपियों में शब्दों की वर्तनी से उच्चारण का सीधा सम्बन्ध बहुत कम होता है। इसलिये अंग्रेजी, फ्रेंच आदि भाषाओं के शब्दों के उच्चारण को बताने के लिये अन्तरराष्ट्रीय ध्वन्यात्मक वर्णमाला (आईपीए) लिपि या आडियो फाइल या किसी अन्य विधि का सहारा लेना पड़ता है। किन्तु हिन्दी, मराठी, संस्कृत, नेपाली आदि के शब्दों की वर्तनी ही उनके उच्चारण के लिये पर्याप्त है।
[संपादित करें]परिचय
उच्चारण के अंतर्गत प्रधानतया तीन बातें आती हैं :
(१) ध्वनियों, विशेषतया स्वरों में ह्रस्व दीर्घ का भेद,
२) बलात्मक स्वराघात,
(३) गीतात्मक स्वराघात।
इन्हीं के अंतर से किसी व्यक्ति या वर्ग के उच्चारण में अंतर आ जाता है। कभी-कभी ध्वनियों के उच्चारणस्थान में भी कुछ भेद पाए जाते हैं।
उच्चारण के अध्ययन का व्यावहारिक उपयोग साधारणतया तीन क्षेत्रों में किया जाता है :
(१) मातृभाषा अथवा विदेशी भाषा के अध्ययन अध्यापन के लिए,
(२) लिपिहीन भाषाओं को लिखने के निमित्त वर्णमाला निश्चित करने के लिए,
(३) भिन्न-भिन्न भाषाओं के उच्चारण की विशेषताओं को समझने तथा उनका तुलनात्मक अध्ययन करने के लिए।
यद्यपि संसार की भिन्न-भिन्न भाषाओं के उच्चारण में समानता का अंश अधिक पाया जाता है, तथापि साथ ही प्रत्येक भाषा के उच्चारण में कुछ विशेषताएँ भी मिलती हैं, जैसे भारतीय भाषाओं की मूर्धन्य ध्वनियाँ ट् ठ् ड् आदि, फारसी अरबी की अनेक संघर्षी ध्वनियाँ जेसे ख़ ग़्ा ज़ आदि, हिंदी की बोलियों में ठेठ ब्रजभाषा के उच्चारण में अर्धविवृत स्वर ऐं, ओं, भोजपुरी में शब्दों के उच्चारण में अंत्य स्वराघात।
भाषाओं के बोले जानेवाले रूप अर्थात् उच्चारण को लिपिचिह्नों के द्वारा लिखित रूप दिया जाता है, तथापि इस रूप में उच्चारण की समस्त विशेषताओं का समावेश नहीं हो पाता है। वर्णमालाओं का आविष्कार प्राचीनकाल में किसी एक भाषा को लिपिबद्ध करने के लिए हुआ था, किंतु आज प्रत्येक वर्णमाला अनेक संबद्ध अथवा असंबद्ध भाषाओं को लिखने में प्रयुक्त होने लगी है जिनमें अनेक प्राचीन ध्वनियाँ लुप्त और नवीन ध्वनियाँ विकसित हो गई हैं। फिर, प्राय: वर्णमालाओं में ह्रस्व, दीर्घ, बलात्मक स्वराघात, गीतात्मक स्वराघात आदि को चिह्नित नहीं किया जाता। इस प्रकार भाषाओं के लिखित रूप से उनकी उच्चारण संबंधी समस्त विशेषताओं पर प्रकाश नहीं पड़ता।
प्रचलित वर्णमालाओं के उपर्युक्त दोष के परिहार के लिए भाषाविज्ञान के ग्रंथों में रोमन लिपि के आधार पर बनी हुई अंतरराष्ट्रीय ध्वन्यात्मक लिपि (इंटरनैशनल फ़ोनेटिक स्क्रिप्ट) का प्राय: प्रयोग किया जाने लगा है। किंतु इस लिपि में भी उच्चारण की समस्त विशेषताओं का समावेश नहीं हो सका है। इनका अध्ययन तो भाषा के "टेप रिकार्ड' या "लिंग्वाफोन' की सहायता से ही संभव होता है।
भाषा के लिखित रूप का प्रभाव कभी-कभी भाषा के उच्चारण पर भी पड़ता है, विशेषतया ऐसे वर्ग के उच्चारण पर जो भाषा को लिखित रूप के माध्यम से सीखता है; जैसे हिंदीभाषी "वह' को प्राय: "वो' बोलते हैं, यद्यपि लिखते "वह' हैं। लिखित रूप के प्रभाव के कारण अहिंदीभाषी सदा "वह' बोलते हैं।
प्रत्येक भाषा के संबंध में आदर्श उच्चारण की भावना सदा वर्तमान रही है। साधारणतया प्रत्येक भाषाप्रदेश के प्रधान राजनीतिक अथवा साहित्यिक केंद्र के शिष्ट नागरिक वर्ग का उच्चारण आदर्श माना जाता है। किंतु यह आवश्यक नहीं है कि इसका सफल अनुकरण निरंतर हो सके। यही कारण है कि प्रत्येक भाषा के उच्चारण में कम या अधिक मात्रा में अनेकरूपता रहती ही है।
किसी भाषा के उच्चारण का वैज्ञानिक अध्ययन करने या कराने के लिए ध्वनिविज्ञान की जानकारी आवश्यक है। प्रयोगात्मक ध्वनिविज्ञान की सहायता से उच्चारण की विशेषताओं का अत्यंत सूक्ष्म विश्लेषण संभव हो गया है। किंतु उच्चारण के इस वैज्ञानिक विश्लेषण के कुछ ही अंशों का व्यावहारिक उपयोग संभव हो पाता है
printing
मुद्रण कला मुद्रण को सजाने, मुद्रण डिजाइन तथा मुद्रण ग्लिफ्स को संशोधित करने की कला एवं तकनीक है. मुद्रण ग्लिफ़ को विभिन्न उदाहरण तकनीकों का उपयोग करके बनाया और संशोधित किया जाता है. मुद्रण की सजावट में टाइपफेस का चुनाव, प्वायंट साईज, लाइन की लंबाई, लिडिंग (लाइन स्पेसिंग) अक्षर समूहों के बीच स्पेस (ट्रैकिंग) तथा अक्षर जोड़ों के बीच के स्पेस (केर्निंग) को व्यवस्थित करना शामिल हैं.[१]
टाइपोग्राफी का टाइपसेटर, कम्पोजिटर, टाइपोग्राफर, ग्राफिक डिजाइनर, कला निर्देशक, कॉमिक बुक कलाकार, भित्तिचित्र कलाकार तथा क्लैरिकल वर्करों द्वारा किया जाता है. डिजिटल युग के आने तक टाइपोग्राफी एक विशेष प्रकार का व्यवसाय था. डिजिटलीकरण ने टाइपोग्राफी को नई पीढ़ी के दृश्य डिजाइनरों और ले युजरों के लिए सुगम बना दिया
मुद्रण कला के जन्म के निशान प्राचीन काल में मुद्रा और मुहर बनाने में उपयोग किए गए प्रथम पंच औप ठप्पों में मिलते हैं. टाइपोग्राफिकल सिद्धांत, जो समान अक्षरों के दुबारा उपयोग के द्वारा एक पूर्ण पाठ की रचना है, को सबसे पहले फेस्टोस डिस्क में समझा गया. यह डिस्क ग्रीस के क्रेटे का एक गूढ़ मिनॉन मुद्रण सामग्री है, जिसका समय 1850 और 1600 ई. पू. के बीच है.[२][३][४] इस बात को सबसे पहले रखा गया है कि रोमन लेड पाइप के अभिलेखों को घूमने वाले टाइप प्रिंटिंग के द्वारा बनाया गया था,[५] लेकिन इस दृष्टिकोण को हाल ही में जर्मन टाइपोग्राफर हर्बर्ट ब्रेकल ने अस्वीकार कर दिया है.[६]
टाइप के पहचान के आवश्यक मानदण्ड का समाधान मध्ययुगीन प्रिंट शिल्पकृति जैसे कि 1119 के लैटिन प्रूफनिंग अब्बे अभिलेख से किया गया जिसका निर्माण फैसटोस डिस्क बनाने के समान तकनीक से किया गया था.[७] उत्तरी इटली के सिविडेल शहर में 1200 के आसपास का एक वेनेटियन सिल्वर रिटेबल है जिसका मुद्रण व्यक्तिगत लेटर पंच के माध्यम से किया गया था.[८] ठीक उसी तरह की मुद्रण तकनीक 10वीं से 12वीं शताब्दी के बाइजेन्टाइन स्टॉरोथेका और ल
यांत्रिक प्रिंटिंग प्रेस के साथ ही आधुनिक चलनशील टाइप का अविष्कार 15वीं शताब्दी के मध्य में यूरोप में जर्मन गोल्डस्मीथ जोहांस गुटेनबर्ग ने किया था.[११] उनके द्वारा इस्तेमाल में लाए गए लेड-आधारित एलॉयमुद्रण के लिए इतने उपयोगी थे कि उसका प्रयोग आज भी किया जाता है.[१२] टेक्स्ट की विविध प्रतियों के मुद्रण हेतु जरूरी बड़ी संख्या में लेटरपंचों के कास्टिंग और कंबाईनिंग चिप कॉपियों के लिए गुटेनबर्ग ने एक विशेष तकनीक का विकास किया; यह महत्वपूर्ण तकनीकी खोज शुरूआती प्रिंटिंग क्रान्ति की सफलता में बहुत मददगार साबित हुआ.
टाइपोग्राफी के साथ चलनशील टाइप का अविष्कार 11वीं शताब्दी में चीन में हुआ. धातु टाइप का अविष्कार सबसे पहले लगभग 1230 में गोर्यो राज के दौरान कोरिया में किया गया. हलांकि, दोनों हस्त मुद्रण प्रणालियों का केवल छुटपुट प्रयोग ही किया जाता था और पश्चिमी लेड टाइप और प्रिंटिंग प्रेस के आने के बाद इसका इस्तेमाल होना बंद हो गया.[१३]
[संपादित करें]कार्य क्षेत्र
समकालीन उपयोग में, टाइपोग्राफी का इस्तेमाल और अध्ययन बहुत व्यापक हो गया है जिसमें अक्षर डिजाइन और उपयोगिता के सभी पहलू शामिल हैं. इनमें शामिल हैं:
- टाइपसेटिंग और टाइप डिजाइन
- हस्तलिपि और सुलेख
- भित्तिचित्र
- अभिलेख और वास्तु से संबंधित अक्षरीकरण
- पोस्टर डिजाइन और अन्य बड़े स्तर के अक्षरीकरण जैसे साइनेज और बिलवोर्ड
- व्यापार संचार और सामानान्तर प्रचार
- विज्ञापन
- वर्डमार्क और टाइपोग्राफिक लोगो(लोगोमुद्रण)
- परिधान (कपड़े)
- नक्शे पर लेबल
- वाहन उपकरण पैनल
- चलायमान फिल्मों और टेलीविज़न में गतिज मुद्रणकला
- औद्योगिक डिजाइन के एक घटक के रूप में—उदाहरण के लिए, घरेलू उपकरणों, कलम और कलाई घड़ी पर मुद्रण
- आधुनिक कविता के एक घटक के रूप में (उदाहरण के तौर पर ई. ई. कमिंग्स की कविता देखें)
डिजिटलीकरण के बाद से, वेब पेज, एलसीडी मोबाइल फोन के स्क्रिन पर प्रकट होकर, और हाथ से खेले जाने वाले वीडियो गेम के साथ जुड़कर टाइपोग्राफी उपयोग के व्यापक क्षेत्रों में फैल गया है. मुद्रण की सर्वव्यापकताने टाइपोग्राफरों को इस मुहावरे को भुनाने का अवसर दे दिया है कि "मुद्रण हर जगह है".
पारंपरिक टाइपोग्राफी चार सिद्धांतों का अनुसरण करती है: दुहराव, विषमता, निकटता और
पाठ मुद्रणकला
पारंपरिक टाइपोग्राफी में पाठ को पढ़ने योग्य, सुसंगत, पढ़कर संतोष देने के लिए तैयार किया जाता है, जो पाठक की जानकारी के बिना अदृश्य रूप से अपना काम करता है. टाइपसेट सामग्री का वितरण भी, थोड़े विकर्षण असंगति के साथ, शुद्धता और सफाई पर ध्यान रखता है.
फ़ॉन्ट का विकल्प टाइपोग्राफी के पाठ का पहला चरण है- गद्य में लिखी कहानी, कहानी से अलग लेखन, संपादकीय, शैक्षिक, धार्मिक, वैज्ञानिक, आध्यात्मिक और व्यावसायिक लेखन सबकी सही टाइपफेस और फ़ॉन्ट की अपनी अलग विशेषता और जरूरतें होती हैं. ऐतिहासिक सामग्री के लिए स्थापित पाठ टाइपफ़ेस का चुनाव ऐतिहासिक अवधियों के बीच विचारणीय ओवरलैप के साथ संचयन की लंबी प्रक्रिया के द्वारा हासिल की गई ऐतिहासिक विधा की एक योजना के हिसाब से किया जाता है.
समकालीन किताबों को संभवत: स्टेट-ऑफ-द-आर्ट सेरिफ किया हुआ "टेक्स्ट रोमन" या "बुक रोमन " के साथ सेट किया जाता है और उनके डिजाइन मूल्य वर्तमान समय की डिजाइन कला के संकेत देते हैं जो निकोलस जेन्सन, फ्रांसेस्को ग्रिफो (एक पंचकट्टर जिसने एल्डाईन टाइपरफेस के लिए मॉडल तैयार किया) तथा क्लाउड गैरामंड जैसे पारंपरिक मॉडलों पर बहुत हद तक आधारित हैं. अखबार और पत्रिकाएं अपनी विशेष जरूरतों के साथ कॉम्पैक्ट, विशेषकर कार्य के लिए ही कसा हुआ सेरिफ्ड टेक्स्ट फॉंट का इस्तेमाल करती हैं, जो अधिक लचीलापन, पठनीयता और पेज स्पेस के कुशल इस्तेमाल का अवसर प्रदान करता है. सैन्स सेरिफ़ टेक्स्ट फ़ॉन्ट का उपयोग अक्सर परिचयात्मक पैराग्राफ, प्रासंगिक पाठ और सम्पूर्ण लघु लेखों के लिए किया जाता है. एक लेख के टेक्स्ट के लिए मैचिंग स्टाइल के एक हाई परफारमेंस सेरिफ्ड फॉंट के साथ शीर्षकों के लिए सैन्स-सेरिफ टाइप को जोड़ देना एक मौजूदा फैशन है.
टाइपोग्राफी को आकृति विज्ञान और भाषा विज्ञान, शब्द संरचना, शब्द आवृति, मार्फोलॉजी, ध्वन्यात्मक
[संपादित करें]रंग
टाइपोग्राफी में पेज पर स्याही की पूरी सघनता रंग ही होता है, जिसे मुख्य रूप से टाइप फेस और आकार के द्वारा निर्धारित किया जाता है, जो कि महत्वपूर्ण है, लेकिन वर्ड स्पेसिंग और मार्जिन की गहराई द्वारा भी इसका निर्धारण होता है.[१४] पाठ लेआउट, टोन या सेट किए हुए मैटर का रंग, तथा पेज के ह्वाइट स्पेस और अन्य ग्राफिक तत्वों के साथ टेक्स्ट का परस्पर प्रभाव विषय वस्तु के प्रति "अनुभव" और "रेज़ोनंस" को दर्शाता है. प्रिंटमीडिया के साथ ही टाइपोग्राफर बाइंडिंग मार्जिन, कागज के चुनाव तथा मुद्रण की विधि के साथ भी जुड़े रहते हैं.
[संपादित करें]पठनीयता और सुवाच्यता (स्पष्टता)
सुवाच्यता टाइपरफेस डिजाइनर का मामला है कि वह सुनिश्चत करे कि प्रत्येक वर्ण या ग्लीफ फॉंट के सभी अन्य वर्णों से साफ़ और सुथरा रहें. सुवाच्यता कुछ हद तक टाइपोग्राफर के साथ भी संबंध रखता है कि नियत आकार पर नियत उपयोग के लिए वह सही और साफ डिजाइन के टाइपरफेस का चुनाव करे. डिजाइन का एक प्रसिद्ध उदाहरण, ब्रश स्क्रिप्ट में बहुत सारे अपठनीय वर्ण होते हैं, चूंकि उनमें से बहुत सारे वर्ण आसानी से गलत पढ़े जा सकते हैं यदि वे पाठ्यगत संदर्भ से अलग दिखें.
पठनीयता मुख्य रूप से टाइपोग्राफर या सूचना डिजाइनर से जुड़ी हुई है. यह जितना हो सके उतने सुस्पष्ट ढंग से पाठ सामग्री को समझाने के लिए उसकी प्रस्तुति की पूरी प्रक्रिया का नियत परिणाम है. ऑप्टिनल इंटर लेटर, इंटर-वर्ड तथा विशेष रूप से इंटर-लाइन स्पेसिंग के साथ पेज पर सही लाइन लेंथ और स्थिति का जुड़ाव, सावधान संपादकीय "चंकिंग", और शीर्षक, फोलियो तथा संबंधित लिंक की टेक्स्ट संरचना के विकल्प के द्वारा एक पाठक को आसानी से जानकारी के आसपास जाने में मदद की जा सकती है
इन दो अवधारणाओं के बीच एक सबसे स्पष्ट भेद अपने लेटर्स ऑफ क्रेडिट (साख पत्र) में वाल्टर ट्रेसी द्वारा प्रस्तुत किया गया था. ... 'एक मुद्रण के दो पहलू' ... 'अपनी प्रभावशीलता में मौलिकता' ... हैं. क्योंकि "सुपाठ्य" का आम अर्थ "पठनीय" ही है फिर भी कुछ लोग हैं, जिनमें से कुछ व्यवसायिक रूप से टाइपोग्राफी से जुड़े लोग भी हैं, जो यह सोचते हैं कि "सुपाठ्यता (सुवाच्यता)" एक ऐसा शब्द है जिसपर टाइप की प्रभावशीलता को लेकर और बहस की जरूरत है. लेकिन स्पष्टता और पठनीयता अलग-
ध्यान देने की बात है कि उपरोक्त सिद्धांत जरूरी प्रकाश में उपयुक्त रीडिंग दूरी पर 20/20 दृष्टि वाले लोगों के साथ लागू होता है. अर्थ की स्वतंत्रता और दृश्य की तीक्ष्णता की परीक्षा के लिए एक ऑप्टिशियंस चार्ट की समानता, स्पष्टता (सुवाच्यता) की अवधारणा की गुंजाइश का संकेत करने के लिए उपयोगी है.
'टाइपोग्राफी में ... अगर एक अखबार या पत्रिका या एक किताब के पन्नों के स्तंभों को तनाव या कठिनाई के बिना कई मिनटों तक पढ़ा जा सकता है, तो हम कह सकते हैं कि टाइप की पठनीयता अच्छी है. इस बात से दृश्य आराम की गुणवत्ता का संकेत मिलता है - पाठ की लंबी विस्तृत समझ में यह एक महत्वपूर्ण आवश्यकता है, लेकिन इसके विपरीत, टेलीफोन निर्देशिका या हवाई जहाज की समय सारणी जैसी चीजों के लिए यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जहां पाठक इसे लगातार पढ़ते नहीं हैं बल्कि एक छोटी चीज की सूचना को ढूंढते हैं. दृश्य प्रभाव के दोनों पहलुओं में अंतर टेक्स्ट सेटिंग के लिए सैन्स-सेरिफ की उपयुक्तता के एक परिचित तर्क द्वारा किया जाता है. एक विशिष्ट सैन्स-सेरिफ़ फेस के वर्ण आपस में पूर्ण रूप से समझ में आ सकते हैं, लेकिन एक प्रसिद्ध उपन्यास को कोई भी इसमें सेट करने के बारे में नहीं सोच सकता क्योंकि इसकी पठनीयता कम है.[१६]
सुवाच्यता 'प्रत्यक्ष ज्ञान से संबंधित है' और पठनीयता 'समझ को दर्शाता है'[१६]. टाइपोग्राफर का उद्देश्य दोनों में उत्कृष्टता प्राप्त करना होता है.
"चुना हुआ टाइपफ़ेस स्पष्ट होना चाहिए. मतलब, यह प्रयास के बिना पढ़ा जाना चाहिए. कभी कभी स्पष्टता महज टाइप के आकार का मामला है. लेकिन बहुत हद तक अक्सर, यह टाइपरफेस डिजाइन का मामला है. सामान्यत: जो टाइपरफेस बुनियादी लेटरफार्म के नजदीक होते हैं, वे उन टाइपरफेसों के मुकाबले अधिक स्पष्ट होते हैं जो सघन, फैले हुए, संवरे हुए या अलग होते हैं.
हालांकि, एक स्पष्ट टाइपरफेस भी कमजोर सेटिंग और क्रम स्थान के चलते अपठनीय हो सकता है, ठीक उसी तरह स्पष्ट टाइपरफेस अच्छे डिजाइन के द्वारा अधिक पठनीय बनाए जा सकते हैं.[१७]
स्पष्टता और पठनीयता दोनों के अध्ययन ने टाइप के आकार और डिजाइन सहित अन्य तत्वों के एक बड़े रेंज की जांच की है. उदाहरण के लिए, सेरिफ बनाम सैन्स सेरिफ टाइप, इटैलिक टाइप बनाम रोमन टाइप, लाइन लेन्थ, लाइन स्पेसिंग, कलर कंट्रास्ट, दायें किनारे का डिजाइन (उदाहरण के लिए, जस्टिफिकेशन, स्ट्रेट राईट हैंड एज) बनाम दायां विस्तार की तुलना करना, तथा यह कि क्या टेक्स्ट हायफन युक्त है.
सुवाच्यता अनुसंधान उन्नीसवीं सदी के बाद के दिनों में प्रकाशित की गई. यद्यपि वहां अक्सर समानताएं और कई विषयों पर सहमति है, लेकिन दूसरे अक्सर संघर्ष और राय की विभिन्नता के मार्मिक क्षेत्रों को सामने लाते हैं. उदाहरण के लिए, एलेक्स पूल के अनुसार किसी ने भी इसका अंतिम उत्तर नहीं दिया है कि कौन फॉंट, सेरिफ्ड या सैन्स सेरिफ सबसे अधिक स्पष्टता प्रदान करता है.[१८]
अन्य विषयों जैसे जस्टिफाईड बनाम अनजस्टिफाईड, हायफन का प्रयोग, पढ़ने में कठिनाई महसूस करने वाले लोगों के लिए उपयुक्त फॉंट जैसे कि डाइस्लेक्सिया पर विवाद जारी है. hgredbes.com, http://bancomicsans.com/