[संपादित करें] भारत का संविधान और मूल अधिकार
परतन्त्र भारत में मूल अधिकार की सर्वप्रथम मांग संविधान विधेयक, १८९५ के माध्यम से की गयी । भारतीय संविधान में भाग ३ के अनुच्छेद १२ से ३० तक तथा ३२ और ३५ (कुल २३ अनुच्छेदों) में जनता के मूल अधिकारों का वर्णन किया गया हैं ।
भारत संविधान में ६ मूल अधिकार दिए गए हैं जो इस प्रकार हैं-
- समता का आधिकार
- सवतंत्रता का आधिकार
- शोषण के विरुद्ध आधिकार
- धर्म की स्वतंत्रता का आधिकार
- संस्कृति और शिक्षा सम्बन्धी आधिकार
- संविधानिक उपचारो का आधिकार
संविधान
संविधान (constitution) , किसी संस्था को प्रचालित करने के लिये बनाया हुआ संहिता (दस्तावेज) है। यह प्रायः लिखित रूप में होता है। यह वह विधि है जो किसी राष्ट्र के शासन का आधार है; उसके चरित्र , संगठन , को निर्धारित करती है तथा उसके प्रयोग विधि को बताती है , यह राष्ट्र की परम विधि है तथा विशेष वैधानिक स्तिथि का उपभोग करती है
विशेष वैधानिक स्तिथि का लाभ - यह क़ानून सीधे जनता से अपनी सत्ता प्राप्त करता है
जेसे संविधान की उद्देशिका इस प्रकार शुरू होती है 'हम भारत के लोग ' दूसरी सभी रूधिया, विधि ,कानूनी मान्यता तो रखती है परन्तु संविधान की तुलना मे गौण होती है
सभी प्रचलित कानूनों को अनिवार्य रूप से संविधान की भावना के अनुरूप होना चाहिए यदि वे इसका उल्लंघन करेंगे तो वे अस्वेधानिक घोषित कर दिए जाते है
[संपादित करें] संविधान के प्रकार
१ गेर लिखित जेसे ब्रिटेन का है
२ लिखित जेसे भारत का है
१ गैर लिखित संविधान कभी भी सहिन्ताबध नही किया जाता है उसमे कोई अनुच्छेद या अनुसूची नही होती है यदपि जनता को उसकी जानकारी होती है
वह्नी लिखित संविधान एक वैधानिक पत्र के रूप मे सहिन्ताबध होता है
२ अलिखित संविधान निर्मित ना होकर विकसित होता है जेसे ब्रिटेन का संविधान मैग्नाकार्टा से शुरू होता है तथा आज भी जारी है
वाही लिखित संविधान मात्र संविधान सभा की देन होते है ,उनके शुरू होने तथा बन जाने के बाद समाप्त होने की तिथि जरूर होती है
३ अलिखित संविधान मे संसद सर्वोच्च सत्ता होती है वे संविधान से परे होती है उस पर प्रभुता रखती है संसद के सभी कानून अपने आप संविधान का हिस्सा बन जाते है
किंतु लिखित सविधान मे संविधान सर्वोपरि होता है न कि संसद
४ अलिखित संविधान हमेशा लचीला होगा उसमे इच्छा अनुसार बदलाव लाये जा सकते है
किंतु लिखित संविधान सुनम्य ,कठोर तथा मिश्रित प्रकार का हो सकता है
अन्य प्रकार से वर्गीकरण
१ एकात्मक संविधान
२ संघात्मक संविधान
कर्तव्य और अधिकार
सी.डी. बर्न्स की उक्ति है, फ्रांस की क्रांति ने कोई दान नहीं माँगा, उसने मनुष्य के अधिकारों की माँग की। अधिकार ऐसी अनिवार्य परिस्थिति है जो मनुष्य के विकास के लिए आवश्यक है। यह व्यक्ति की माँग है जिसे समाज, राज्य तथा कानून नैतिक मान्यता देते हें और उनकी रक्षा करना अपना परम धर्म समझते हैं। अधिकार वे सामाजिक परिस्थितियाँ तथा अवसर हैं जो मनुष्य के व्यक्तित्व के उच्चतम विकास के लिए आवश्यक होते हैं। इन्हें समाज इसी कारण से स्वीकार करता है और राज्य इसी आशय से इनका सरंक्षण करता है। अधिकार उन कार्यों की स्वतंत्रता का बोध कराता है जो व्यक्ति और समाज दोनों के ही लिए उपयोगी सिद्ध हों।
१७वीं और १८वीं शताब्दी के यूरोपीय राजनीतिज्ञों का यह अटल विश्वास था कि मनुष्य के अधिकार जन्मसिद्ध तथा उनके स्वभाव के अंतर्गत हैं। वे प्राकृतिक अवस्था में, जब समाज की स्थापना नहीं हुई थी तो तब, मनुष्य को प्राप्त थे। एथेंस के महान् विचारक अरस्तू का भी यही विचार था। १७८९ में फ्रांस की क्रांति के उपरांत फ्रांसकी राष्ट्रीय सभा ने मानवीय अधिकारों की उद्घोषणा की। जिन मौलिक तत्वों को लेकर फ्रांस ने क्रांति का कदम उठाया था उन्हीं सब तत्वों का समावेश इस घोषणा में किया गया था। इस घोषणा के परिणामस्वरूप ्फ्रांस के समाजिक, राजनीतिक एवं मनोवैज्ञानिक जीवन में और तज्जनित सिद्धांतों में परिवर्तन हुआ। मानवीय अधिकारों की घोषणा का प्रभाव आधुनिक संविधानों पर स्पष्ट ही है। यूरोपीय जीवन, विचार, इतिहास और दर्शन पर इस घोषणा की अमिट छाप है। इस घोषणा से प्रत्येक मनुष्य के लिए स्वतंत्रता, संपत्तिसुरक्षा एवं अत्याचार का विरोध करने के अधिकार को मौलिक अधिकार की मान्यता प्रदान की गई। मानवीय अधिकारों की उद्घोषणा का बड़ा व्यापक प्रभाव रहा है। सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक अर्थात् मनुष्य जीवन से संबंधित सभी क्षेत्रों पर इन विचारों का प्रभाव सुस्पष्ट है। समाजवादी दर्शन ने इन अधिकारों का क्षेत्र और भी विस्तृत कर दिया है। सोवियत संघ ने अपने सामाजिक अधिकारों में इन अधिकारों को प्रमुख स्थान दिया है। सन् १९४६ में जब फ्रांस ने अपने संविधान की रचना की तब इन श्रेष्ठतम अधिकारों को स्थान देते हुए उसने और भी नए सामाजिक अधिकारों का समावेश संविधान की धाराओं में किया। आधुनिकतम सभी संविधानों में इन अधिकारों का समावेश है। नागरिक के मूल अधिकारों में इनकी गणना है। यह जाति और नरनारी की समानता का युग है। नागरिक अधिकारों में इन्हें भी स्थान प्राप्त हो गया है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी इन मानवीय अधिकारों की मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि पर एक विस्तृत सूची बनाई। नागरिक अधिकारों के संबंध में बदलती हुई समाजिक और राजनीतिक प्रक्रिया की छाप उसपर स्पष्ट है। १० दिसंबर, १९४८ को संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपनीसाधारण सभा में सार्वभौम मानवीय अधिकारों को घोषित किया। यह सूची ४८ सदस्य राज्यों के बहुमत से पारित हुई। मनुष्य जीवन के जितने भी आधुनिक मूल्य हैं उन सारे मूल्यों का समाहार इस सूची में किया गया है।
सामान्यत: कर्तव्य शब्द का अभिप्राय उन कार्यों से होता है, जिन्हें करने के लिए व्यक्ति नैतिक रूप से प्रतिबद्ध हाता है। इस शब्द से वह बोध होता है कि व्यक्ति किसी कार्य को अपनी इच्छा, अनिच्छा या केवल बाह्य दबाव के कारण नहीं करता है अपितु आंतरिक नैतिक प्ररेणा के ही कारण करता है। अत: कर्तव्य के पार्श्व में सिद्धांत या उद्देश्य के प्ररेणा है। उदहरणार्थ संतान और माता-पिता का परस्पर संबंध, पति-पत्नी का संबध, सत्यभाषण, अस्तेय (चोरी न करना) आदि के पीछे एक सूक्ष्म नैतिक बंधन मात्र है। कर्तव्य शब्द में "कर्म' और "दान' इन दो भावनाओं का सम्मिश्रण है। इसपर नि:स्वार्थता का अस्फुट छाप है। कर्तव्य मानव के किसी कार्य को करने या न करने के उत्तरदायित्व के लिए दूसरा शब्द है। कर्तव्य दो प्रकार के होते हैं-नैतिक तथा कानूनी। नैतिक कर्तव्य वे हैं जिनका संबंध मानवता की नैतिक भावना, अंत:करण की प्रेरणा या उचित कार्य की प्रवृत्ति से होता है। इस श्रेणी के कर्तव्यों का सरंक्षण राज्य द्वारा नहीं होता। यदि मानव इन कर्तव्यों का पालन नहीं करता तो स्वयं उसका अंत:करण उसको धिक्कार सकता है, या समाज उसकी निंदा कर सकता है किंतु राज्य उन्हें इन कर्तव्यों के पालन के लिए बाध्य नहीं कर सकता। सत्यभाषण, संतान संरक्षण, सद्व्यवहार, ये नैतिक कर्तव्य के उदाहरण हैं। कानूनी कर्तव्य वे हैं जिनका पालन न करने पर नागरिक राज्य द्वारा निर्धारित दंड का भागी हो जाता है। इन्हीं कर्तव्यों का अध्ययन राजनीतिक शास्त्र में होता है।
हिंदू राजनीति शास्त्र में अधिकारों का वर्णन नहीं है। उसमें कर्तव्यों का ही उल्लेख हुआ है। कर्तव्य ही नीतिशास्त्र के केंद्र हैं।
अधिकार और कर्तव्य का बड़ा घनिष्ठ संबंध है। वस्तुत: अधिकार और कर्तव्य एक ही पदार्थ के दो पार्श्व हैं। जब हम कहते हैं कि अमुक व्यक्ति का अमुक वस्तु पर अधिकार है, तो इसका दूसरा अर्थ यह भी होता है कि अन्य व्यक्तियों का कर्तव्य है कि उस वस्तु पर अपना अधिकार न समझकर उसपर उस व्यक्ति का ही अधिकार समझें। अत: कर्तव्य और अधिकार सहगामी हैं। जब हम यह समझते हैं कि समाज और राज्य में रहकर हमारे कुछ अधिकार बन जाते हैं तो हमें यह भी समझना चाहिए कि समाज और राज्य में रहते हुए हमारे कुछ कर्तव्य भी हैं। अनिवार्य अधिकारों का अनिवार्य कर्तव्यों से नित्यसंबंध है।
फ्रांस के क्रांतिकारियों ने लोकप्रिय संप्रभुता के सिद्धांत को संसार में प्रसारित किया था। समता, स्वतंत्रता, भ्रातृत्व, ये क्रांतिकारियों के नारे थे ही। जनसाधारण को इनका अभाव खटकता था, इनके बिना जनसाधारण अत्याचार का शिकार बन जाता है। आधुनिक संविधानों ने नागरिकों के मूल अधिकारों की घोषणा के द्वारा उपर्युक्त राजनीतिदर्शन को संपुष्ट किया है। मनुष्य की जन्मजात स्वतंत्रता को मान्यता प्रदान की गई है, स्वतंत्र जीवनयापन के अधिकार और मनुष्यों की समानता को स्वीकार किया है। आज ये सब विचार मानव जीवन और दर्शन के अविभाज्य अंग हैं। आधुनिक संविधान निर्माताओं ने नागरिक के इन मूलअधिकारों को संविधान में घोषित किया है। भारतीय गणतंत्र संविधान ने भी इन्हें महत्वपूर्ण स्थान दिया है।
भारत के नागरिकों का मौलिक अधिकार, नीति निर्देशक तत्व एवं मूल कर्तव्य
मौलिक अधिकार
संविधान सभी नागरिकों के लिए व्यष्टि और सामूहिक रूप से कुछ बुनियादी स्वतंत्रता देता है। इनकी मौलिक अधिकारों की छह व्यापक श्रेणियों के रूप में संविधान में गारंटी दी जाती है जो न्यायोचित हैं। संविधान के भाग III में सन्निहित अनुच्छेद 12 से 35 मौलिक अधिकारों के संबंध में है। ये हैं:
1. समानता का अधिकार जिसमें कानून के समक्ष समानता, धर्म, वंश, जाति लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध शामिल है, और रोजगार के संबंध में समान अवसर शामिल है।
2. भाषा और विचार प्रकट करने की स्वतंत्रता का अधिकार, जमा होने संघ या यूनियन बनाने, आने-जाने, निवास करने और कोई भी जीविकोपार्जन एवं व्यवसाय करने की स्वतंत्रता का अधिकार (इनमें से कुछ अधिकार राज्य की सुरक्षा, विदेशी देशों के साथ भिन्नतापूर्ण संबंध सार्वजनिक व्यवस्था, शालीलनता और नैतिकता के अधीन दिए जाते हैं)।
3. शोषण के विरुद्ध अधिकार, इसमें बेगार, बाल श्रम और मनुष्यों के व्यापार का निषेध किया जाता है।
4. आस्था एवं अन्त:करण की स्वतंत्रता, किसी भी धर्म को अनुयायी अपनाना उस पर विश्वास रखना एवं धर्म का प्रचार करना इसमें शामिल हैं।
5. किसी भी वर्ग के नागरिकों को अपनी संस्कृति सुरक्षित रखने, भाषा या लिपि बचाए रखने और अल्पसंख्यकों को अपनी पसंद की शैक्षिक संस्थाएं चलाने का अधिकार; और
6. मौलिक अधिकार के प्रवर्तन के लिए सांवैधानिक उपचार का अधिकार।
अधिकार
अधिकार, किसी वस्तु को प्राप्त करने या किसी कार्य को संपादित करने के लिए उपलब्ध कराया गया किसी व्यक्ति की कानूनसम्मत या संविदासम्मत सुविधा, दावा या विशेषाधिकार है। कानून द्वारा प्रदत्त सुविधाएँ अधिकारों की रक्षा करती हैं। दोनों का अस्तित्व एक-दूसरे के बिना संभव नहीं। जहाँ कानून अधिकारों को मान्यता देता है वहाँ इन्हें लागू करने या इनकी अवहेलना पर नियंत्रण स्थापित करने की व्यवस्था भी करता है।
[संपादित करें] अधिकार की अवधारणा और उसका विकास
राजनीतिक और संवैधानिक दृष्टि से अधिकार मानव इतिहास से समान शाश्वत है। प्राचीन काल में परिवार और संपत्ति पर मातृसत्ताक समाज में माँ का तथा पितृसत्ताक समाज में पिता का अधिकार होता था। राजतंत्र के विकास के साथ राजा दैवी अधिकार के सिद्धांतों की सहायता से प्रजा से प्रजा को समस्त अधिकारों से निरस्त कर राष्ट्र विशेष में संप्रभु बन जाने लगा। प्रजा या धार्मिक समूहों के हस्तक्षेप से राजा के सीमित अधिकार की मान्यता प्रचलित हुई। भारत और यूनान के प्राचीन गणराज्यों में जनतंत्र या गणतंत्र की कल्पना की गई, जिससे राजा के अधिकार प्रजा के हाथों में जा पहुँचे एवं कहीं प्रत्यक्ष जनतंत्र से, तो कहीं निर्वाचित प्रतिनिधियों के माध्यम से शासन होने लगा। प्लेटो ने आदर्श नगर राज्यों की जनसंख्या 1050 तो अरस्तु ने 10 हजार निश्चित की। अरस्तू ने अप्रत्यक्ष जनतंत्र की भी व्यवस्था दी। उत्तरी भारत में गणतंत्रों का विशेष प्रचलन हुआ, खासकर बौद्ध युग में। कुरु, लिच्छवि, मल्ल, मगध जैसे अनेक गणतंत्रों का इतिहास में उल्लेख मिलता है। हिंदू राजशास्त्रों ने प्रजा के अधिकारों को संरक्षण प्रदान करने के लिए राजा का प्रमुख कर्तव्य प्रजा का रंजन और रक्षण बताया। प्राचीन काल में शासकों और सामंतों ने जनता के अधिकारों का अपहरण कर दास प्रथा का भी प्रचलन किया जिसके अंतर्गत स्त्री-पुरुषों के क्रय-विक्रय का क्रम शुरू हुआ और बलात् शासकेतर व्यक्तियों एवं समूहों को दास बनाया जाने लगा। भारत में दास प्रथा के विरुद्ध मानवीय अधिकारों के लिए सबसे पहले गौतमबुद्ध ने आवाज उठाई और भिक्षु बनाकर दासों को मुक्ति देने का क्रम चलाया।
आधुनिक जनतांत्रिक अधिकारों की प्राप्ति का संघर्ष इंग्लैंड में 13वीं शती से आरंभ हुआ जिसमें राजा के निरंकुश अधिकारों के विरुद्ध विजय हासिल हुई। 1215 ई. में प्रसिद्ध मैग्ना कार्टा की घोषणा से ब्रिटिश संसद को राजा पर नियंत्रण करने का अधिकार मिला। 1603 से जेम्स प्रथम ने दैवी अधिकार के लिए फिर संघर्ष शुरू किया, किंतु 1688 ई. में गौरवपूर्ण क्रांति ने समस्या को सदा के लिए सुलझा दिया, जिसके पश्चात् इंग्लैंड में संसदीय शासन की स्थापना कर दी गई। 16 दिसंबर, 1889 को ब्रिटिश संसद की अधिकार घोषणा को राजा विलियम तथा रानी मेरी ने स्वीकार कर शासन में जनता के अधिकार को मान्यता दी, तबसे ब्रिटिश संसद के अधिकार बढ़ते ही गए। विश्व में मानव अधिकार की व्यापक गरिमा फ्रांसीसी क्रांति (1789 ई.) से स्थापित हुई। जाँ जैक रूसों के संविदा सिद्धांत से प्रेरित क्रांति के समय संविधान सभा ने यह घोषणा की थी कि संविधान निर्मित होने पर सर्वप्रथम मानव अधिकारों का उल्लेख किया जाएगा। यह घोषणा वास्तव में जार्ज वाशिंगटन के नेतृत्व में अमरीका (संयुक्त राज्य) की स्वतंत्रता की घोषणा (सन् 1778 ई.) के सिद्धांतों से प्रेरित थी। मानव अधिकार की घोषणा के आधार पर समता, स्वतंत्रता एवं बंधुता का कानूनी अधिकार प्राप्त हुआ।
इंग्लैंड के राजनीतिक संघर्ष एवं फ्रांस की क्रांति ने दुनिया में पूँजीवादी जनतंत्रों का रास्ता साफ किया, जिसके फलस्वरूप साम्राज्यवाद एवं नवसाम्राज्यवाद के विस्तार से अनेक राष्ट्रों के मानवीय अधिकारों को छीनकर यूरोप के अलावा सारी दुनिया को गुलाम बनाया गया। विश्व के हो महायुद्ध (1914-18 एवं 1939-45) भी इसी के परिणान हैं। 1848 ई. में जर्मन दार्शनिक कार्ल माक्र्स तथा ब्रिटिश दार्शनिक फ्रैंड़रिक ऐंगेल्स ने मैनिफेस्टो ऑव द कम्युनिस्ट पार्टी लिखकर श्रमिक एवं शोषित वर्ग के अधिकारों की प्राप्ति के लिए संघर्ष की एक नई दिशा दी, जिसके लिए शोषणविहीन तथा वर्गहीन समाज की स्थापना एवं मनुष्य के समान आर्थिक अधिकार मुख्य लक्ष्य निर्धारित किए गए। इन्हीं लक्ष्यों को दृष्टि में रखकर 1917 ई. में रूस में नई क्रांति हुई जिसने राजसत्ता पर श्रमिकों एवं मेहनतकशों के अधिकार के सिद्धांत को मूर्त स्वरूप प्रदान किया, जब कि इस क्रांति ने एक साथ ही समस्त शोषक वर्ग को सदा के लिए सत्ता के अधिकार से च्युत कर दिया। इस क्रांति के पश्चात् संविधान द्वारा नागरिकों को वे अधिकार दिए गए जिनके बारे में मानव इतिहास में कभी सुना भी नहीं गया था। 1936 ई. संविधान के अनुसार तत्कालीन सोवियत संघ में जनता को स्वतंत्रता, समता और बंधुता के अतिरिक्त कार्य प्राप्त करने, कार्य करने के निश्चित और सीमित समय के साथ अवकाश का आनंद प्राप्त करने, बेकारी, वृद्धावस्था, रोग, अयोग्यता का भत्ता तथा बीमा की सुविधा प्राप्त करने, निःशुल्क एवं अनिवार्य प्रारंभिक तथा उच्च शिक्षा प्राप्त करने, ट्रेड यूनियन, सहकारिता संघ, युवक संघटन स्थापित करने, समस्त स्त्रियों को सवेतन चौदह महीने का प्रसूति अवकाश प्राप्त करने और अपनी माँगों की पूर्ति के लिए आंदोलन करने के अधिकार प्रदान किए गए। समाजवादी देशों को छोड़कर ऐसे अधिकार अन्य देशों में नहीं मिल सके हैं। 1947 ई. में राजनीतिक दासता से मुक्ति मिलने पर 26 जनवरी, 1950 ई. से लागू भारतीय संविधान ने भी कतिपय मौलिक अधिकार जनता को दिए हैं किंतु संपत्ति के अधिकार पर आधारित होने के कारण ये उतने व्यापक नहीं हो सके हैं जितने सोवियत संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकार। भारतीय संविधान ने धर्म, प्रजाति, जाति, लिंग के भेदभाव को मिटाकर कानून के समक्ष समता का अधिकार प्रदान किया है। अस्पृश्यता तथा बेगारी का अंत कर दिया है। सरकार की ओर से मिलने वाली उपाधियों का अंत कर दिया है। भाषण, सभा, संगठन, आवागमन की स्वतंत्रता प्रदान की गई है। शोषण के संरक्षण का अधिकार दिया गया है। दैहिक स्वतंत्रता (हैबिएस काप्र्स) का अधिकार दिया गया है जिसके अंतर्गत बिना कारण बताए कोई नागरिक गिरफ्तार नहीं किया जा सकता। गिरफ्तार व्यक्ति को न्यायालय से न्याय पाने का अधिकार होगा। विश्वास के आधार पर धर्म को मानने, प्रचार करने का अधिकार दिया गया है। धर्म, संप्रदाय अथवा भाषा के आधार पर अल्पसंख्यक एवं बहुसंख्यक वर्ग को अपनी रुचि के अनुसार शिक्षा संस्थाएँ स्थापित करने तथा उनकी व्यवस्था करने का अधिकार होगा। संपत्ति रखने, बेचने और खरीदने का अधिकार प्रत्येक नागरिक को दिया गया है। अधिकारों की रक्षा के लिए संवैधानिक उपचार का भी अधिकार दिया गया है। समाजवाद एवं आर्थिक स्वतंत्रता की प्रगति के लिए भारतीय संसद ने 1971-72 में संविधान में 24वाँ, 25वाँ और 26वाँ संशोधन कर संपत्ति के अधिकार को सीमित कर दिया है।
[संपादित करें] वर्तमान स्थिति
विश्व के समस्त देशों के नागरिकों को अभी पूर्ण मानव अधिकार नहीं मिला है। अफ्रीका के अनेक देशों एवं संयुक्त राज्य अमरीका के दक्षिणी राज्यों में अभी भी किसी-न-किसी रूप में दासप्रथा, रंगभेद तथा बेगारी मौजूद हैं। भारत में हरिजनों तथा अनेक परिगणित जातियों को व्यवहार में समता और संपत्ति के अधिकार नहीं मिल सके हैं। दो तिहाई मानव जाति का अभी भी आर्थिक शोषण होता चला आ रहा है। उपनिवेशवाद के कारण एशिया, अफ्रीका तथा लैटिन अमरीका के अनेक अविकसित राष्ट्रों का बड़े साम्राज्यवादी राष्ट्रों द्वारा आर्थिक शोषण हो रहा है। इसी दिशा में मुक्ति तथा राष्ट्रों और नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ सचेष्ट हैं। संयुक्त राष्ट्रसंघ की ओर से प्रति वर्ष 10 दिसंबर को मानव-अधिकार-दिवस मनाया जाता है। सन् 1945 में अपनी स्थापना के समय से ही संयुक्त राष्ट्रसंघ ने मानव अधिकारों की अभिवृद्धि एवं संरक्षण के लिए प्रयास आरंभ किया है। इस निमित्त मानव-अधिकार-आयोग ने अधिकारों की एक विस्तृत रूपरेखा प्रस्तुत की जिस संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 10 दिसंबर, 1948 को स्वीकार किया। तीस अध्यायों के मानव अधिकार घोषणापत्र में उन अधिकारों का उल्लेख है जिन्हें विश्वभर के स्त्री-पुरुष बिना भेदभाव के पाने के अधिकारी हैं। इन अधिकारों में व्यक्ति के जीवन, दैहिक स्वतंत्रता, सुरक्षा एवं स्वाधीनता, दासता से मुक्ति, स्वैच्छिक गिरफ्तारी एवं नजरबंद से मुक्ति, स्वतंत्र एवं निष्पक्ष न्यायाधिकरण के सामने सुनवाई का अधिकार, अपराध प्रमाणित न होने तक निरपराध माने जाने का अधिकार, आवागमन एवं आवास की स्वतंत्रता, किसी देश की राष्ट्रीयता प्राप्त करने का अधिकार, विवाह करने का और परिवार बसाने का अधिकार, संपत्ति रखने का अधिकार, विचार, धर्म, उपासना की स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, शांतिपूर्ण सभा करने की स्वतंत्रता, मतदान करने और सरकार में शामिल होने का अधिकार, सामाजिक स्वतंत्रता का अधिकार, काम पाने का अधिकार, समुचित जीवनस्तर का अधिकार, शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार, समाज के सांस्कृतिक जीवन में सहभागी बनने का अधिकार इत्यादि शामिल हैं। वैकल्पिक रूप से संयुक्त राष्ट्रसंघ अनेक संगठनों एवं संस्थाओं का निर्माण कर धरती पर इन अधिकारों को चरितार्थ करने के लिए प्रयत्नशील है।
लोकसभा भारतीय लोकतंत्र की निचली प्रतिनिधि सभा है। राज्यसभा उपरी प्रतिनिधि सभा है। भारतीय संविधान के अनुसार में लोकसभा मे सदस्यों की अधिकतम संख्या ५५२ तक हो सकती है। राज्यों का प्रतिनिधित्व करने वाले ५३० सदस्य, २० सदस्य संघशासित प्रदेशों का प्रतिनिधित्व के लिए तथा 2 सदस्यों को राष्ट्रपति द्वारा एंग्लो-इण्डियन समुदाय से नामित किया जा सकता हैं। वर्तमान सदस्य संख्या ५४५ है
राज्यसभा भारतीय लोकतंत्र की उपरी प्रतिनिधि सभा है । लोकसभा निचली प्रतिनिधि सभा है । पृष्ठभूमि काउंसिल ऑफ स्टेट्स, जिसे राज्य सभा भी कहा जाता है, एक ऐसा नाम है जिसकी घोषणा सभापीठ द्वारा सभा में 23 अगस्त, 1954 को की गई थी। इसकी अपनी खास विशेषताएं हैं। भारत में द्वितीय सदन का प्रारम्भ 1918 के मोन्टेग-चेम्सफोर्ड प्रतिवेदन से हुआ। भारत सरकार अधिनियम, 1919 में तत्कालीन विधानमंडल के द्वितीय सदन के तौर पर काउंसिल ऑफ स्टेट्स का सृजन करने का उपबंध किया गया जिसका विशेषाधिकार सीमित था और जो वस्तुत: 1921 में अस्तित्व में आया। गवर्नर-जनरल तत्कालीन काउंसिल ऑफ स्टेट्स का पदेन अध्यक्ष होता था। भारत सरकार अधिनियम, 1935 के माध्यम से इसके गठन में शायद ही कोई परिवर्तन किए गए।
संविधान सभा, जिसकी पहली बैठक 9 दिसम्बर 1946 को हुई थी, ने भी 1950 तक केन्द्रीय विधानमंडल के रूप में कार्य किया, फिर इसे 'अनंतिम संसद' के रूप में परिवर्तित कर दिया गया। इस अवधि के दौरान, केन्द्रीय विधानमंडल जिसे 'संविधान सभा' (विधायी) और आगे चलकर 'अनंतिम संसद' कहा गया, 1952 में पहले चुनाव कराए जाने तक, एक-सदनी रहा।
स्वतंत्र भारत में द्वितीय सदन की उपयोगिता अथवा अनुपयोगिता के संबंध में संविधान सभा में विस्तृत बहस हुई और अन्तत: स्वतंत्र भारत के लिए एक द्विसदनी विधानमंडल बनाने का निर्णय मुख्य रूप से इसलिए किया गया क्योंकि परिसंघीय प्रणाली को अपार विविधताओं वाले इतने विशाल देश के लिए सर्वाधिक सहज स्वरूप की सरकार माना गया। वस्तुत:, एक प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित एकल सभा को स्वतंत्र भारत के समक्ष आने वाली चुनौतियों का सामना करने के लिए अपर्याप्त समझा गया। अत:, 'काउंसिल ऑफ स्टेट्स' के रूप में ज्ञात एक ऐसे द्वितीय सदन का सृजन किया गया जिसकी संरचना और निर्वाचन पद्धति प्रत्यक्षत: निर्वाचित लोक सभा से पूर्णत: भिन्न थी। इसे एक ऐसा अन्य सदन समझा गया, जिसकी सदस्य संख्या लोक सभा (हाउस ऑफ पीपुल) से कम है। इसका आशय परिसंघीय सदन अर्थात् एक ऐसी सभा से था जिसका निर्वाचन राज्यों और दो संघ राज्य क्षेत्रों की सभाओं के निर्वाचित सदस्यों द्वारा किया गया, जिनमें राज्यों को समान प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया। निर्वाचित सदस्यों के अलावा, राष्ट्रपति द्वारा सभा के लिए बारह सदस्यों के नामनिर्देशन का भी उपबंध किया गया। इसकी सदस्यता हेतु न्यूनतम आयु तीस वर्ष नियत की गई जबकि निचले सदन के लिए यह पच्चीस वर्ष है। काउंसिल ऑफ स्टेट्स की सभा में गरिमा और प्रतिष्ठा के अवयव संयोजित किए गए। ऐसा भारत के उपराष्ट्रपति को राज्य सभा का पदेन सभापति बनाकर किया गया, जो इसकी बैठकों का सभापतित्व करते हैं।
राज्य सभा से संबंधित संवैधानिक उपबंध संरचना/संख्या
संविधान के अनुच्छेद 80 में राज्य सभा के सदस्यों की अधिकतम संख्या 250 निर्धारित की गई है, जिनमें से 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा नामनिर्देशित किए जाते हैं और 238 सदस्य राज्यों के और संघ राज्य क्षेत्रों के प्रतिनिधि होते हैं। तथापि, राज्य सभा के सदस्यों की वर्तमान संख्या 245 है, जिनमें से 233 सदस्य राज्यों और संघ राज्यक्षेत्र दिल्ली तथा पुडुचेरी के प्रतिनिधि हैं और 12 राष्ट्रपति द्वारा नामनिर्देशित हैं। राष्ट्रपति द्वारा नामनिर्देशित किए जाने वाले सदस्य ऐसे व्यक्ति होंगे जिन्हें साहित्य, विज्ञान, कला और समाज सेवा जैसे विषयों के संबंध में विशेष ज्ञान या व्यावहारिक अनुभव है।
स्थानों का आवंटन
संविधान की चौथी अनुसूची में राज्य सभा में राज्यों और संघ राज्य क्षेत्रों को स्थानों के आवंटन का उपबंध है। स्थानों का आवंटन प्रत्येक राज्य की जनसंख्या के आधार पर किया जाता है। राज्यों के पुनर्गठन तथा नए राज्यों के गठन के परिणामस्वरूप, राज्यों और संघ राज्य क्षेत्रों को आवंटित राज्य सभा में निर्वाचित स्थानों की संख्या वर्ष 1952 से लेकर अब तक समय-समय पर बदलती रही है।
पात्रता अर्हताएं
संविधान के अनुच्छेद 84 में संसद की सदस्यता के लिए अर्हताएं निर्धारित की गई हैं। राज्य सभा की सदस्यता के लिए अर्ह होने के लिए किसी व्यक्ति के पास निम्नलिखित अर्हताएं होनी चाहिए: (क) उसे भारत का नागरिक होना चाहिए और निर्वाचन आयोग द्वारा इस निमित्त प्राधिकृत किसी व्यक्ति के समक्ष तीसरी अनुसूची में इस प्रयोजन के लिए दिए गए प्ररूप के अनुसार शपथ लेना चाहिए या प्रतिज्ञान करना चाहिए और उस पर अपने हस्ताक्षर करने चाहिए; (ख) उसे कम से कम तीस वर्ष की आयु का होना चाहिए; (ग) उसके पास ऐसी अन्य अर्हताएं होनी चाहिए जो संसद द्वारा बनाई गई किसी विधि द्वारा या उसके अधीन इस निमित्त विहित की जाएं।
निरर्हताएं
संविधान के अनुच्छेद 102 में यह निर्धारित किया गया है कि कोई व्यक्ति संसद के किसी सदन का सदस्य चुने जाने के लिए और सदस्य होने के लिए निरर्हित होगा-
(क) यदि वह भारत सरकार के या किसी राजय की सरकार के अधीन, ऐसे पद को छोड़कर, जिसको धारण करने वाले का निरर्हित न होना संसद ने विधि द्वारा घोषित किया है, कोई लाभ का पद धारण करता है; (ख) यदि वह विकृतचित है और सक्षम न्यायालय की ऐसी घोषणा विद्यमान है; (ग) यदि वह अनुन्मोचित दिवालिया है; (घ) यदि वह भारत का नागरिक नहीं है या उसने किसी विदेशी राज्य की नागरिकता स्वेच्छा से अर्जित कर ली हे या वह किसी विदेशी राज्य के प्रति निष्ठा या अनुषक्ति को अभिस्वीकार किए हुए है; (ड.) यदि वह संसद द्वारा बनाई गई किसी विधि द्वारा या उसके अधीन इस प्रकार निरर्हित कर दिया जाता है।
स्पष्टीकरण-
इस खंड के प्रयोजनों के लिए, कोई व्यक्ति केवल इस कारण भारत सरकार के या किसी राज्य की सरकार के अधीन लाभ का पद धारण करने वाला नहीं समझा जाएगा कि वह संघ का या ऐसे राज्य का मंत्री है।
इसके अतिरिक्त, संविधान की दसवीं अनुसूची में दल-परिवर्तन के आधार पर सदस्यों की निरर्हता के बारे में उपबंध किया गया है। दसवीं अनुसूची के उपबंधों के अनुसार, कोई सदस्य एक सदस्य के रूप में उस दशा में निरर्हित होगा, यदि वह स्वेच्छा से अपने राजनीतिक दल की सदस्यता छोड़ देता है; या वह ऐसे राजनीतिक दल द्वारा, जिसका वह सदस्य है, दिए गए किसी निदेश के विरुद्ध सदन में मतदान करता है या मतदान करने से विरत रहता है और ऐसे मतदान या मतदान करने से विरत रहने को उस राजनीतिक दल द्वारा पन्द्रह दिन के भीतर माफ नहीं किया गया है। निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में निर्वाचित सदस्य निरर्हित होगा यदि वह अपने निर्वाचन के पश्चात् किसी राजनीतिक दल में सम्मिलित हो जाता है।
तथापि, राष्ट्रपति द्वारा सदन के किसी नामनिर्देशित सदस्य को किसी राजनीतिक दल में सम्मिलित होने की अनुमति होगी यदि वह सदन में अपना स्थान ग्रहण करने के पहले छह मास के भीतर ऐसा करता/करती है।
किसी सदस्य को इस आधार पर निरर्हित नहीं किया जाएगा यदि वह राज्य सभा का उप-सभापति निर्वाचित होने के पश्चात् अपने राजनीतिक दल की सदस्यता स्वेच्छा से छोड़ देता/देती है।
निर्वाचन/नामनिर्देशन की प्रक्रिया निर्वाचक मंडल
राज्य सभा में राज्यों और संघ राज्य क्षेत्रों के प्रतिनिधियों का निर्वाचन अप्रत्यक्ष निर्वाचन पद्धति द्वारा किया जाता है। प्रत्येक राज्य तथा दो संघ राज्य क्षेत्रों के प्रतिनिधियों का निर्वाचन उस राज्य की विधान सभा के निर्वाचित सदस्यों तथा उस संघ राज्य क्षेत्र के निर्वाचक मंडल के सदस्यों, जैसा भी मामला हो, द्वारा एकल संक्रमणीय मत द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के अनुसार किया जाता है। दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के निर्वाचक मंडल में दिल्ली विधान सभा के निर्वाचित सदस्य और पुडुचेरी संघ राज्य क्षेत्र के निर्वाचक मंडल में पुडुचेरी विधान सभा के निर्वाचित सदस्य शामिल हैं।
द्वि-वार्षिक/उप-चुनाव
राज्य सभा एक स्थायी सदन है और यह भंग नहीं होता। तथापि, प्रत्येक दो वर्ष बाद राज्य सभा के एक-तिहाई सदस्य सेवा-निवृत्त हो जाते हैं। पूर्णकालिक अवधि के लिए निर्वाचित सदस्य छह वर्षों की अवधि के लिए कार्य करता है। किसी सदस्य के कार्यकाल की समाप्ति पर सेवानिवृत्ति को छोड़कर अन्यथा उत्पन्न हुई रिक्ति को भरने के लिए कराया गया निर्वाचन 'उप-चुनाव' कहलाता है।
उप-चुनाव में निर्वाचित कोई सदस्य उस सदस्य की शेष कार्यावधि तक सदस्य बना रह सकता है जिसने त्यागपत्र दे दिया था या जिसकी मृत्यु हो गई थी या जो दसवीं अनुसूची के अधीन सभा का सदस्य होने के लिए निरर्हित हो गया था।
पीठासीन अधिकारीगण-सभापति और उपसभापति
राज्य सभा के पीठासीन अधिकारियों की यह जिम्मेदारी होती है कि वे सभा की कार्यवाही का संचालन करें। भारत के उपराष्ट्रपति राज्य सभा के पदेन सभापति हैं। राज्य सभा अपने सदस्यों में से एक उपसभापति का भी चयन करती है। राज्य सभा में उपसभाध्यक्षों का एक पैनल भी होता है, जिसके सदस्यों का नामनिर्देशन सभापति, राज्य सभा द्वारा किया जाता है। सभापति और उपसभापति की अनुपस्थिति में, उपसभाध्यक्षों के पैनल से एक सदस्य सभा की कार्यवाही का सभापतित्व करता है।
महासचिव
महासचिव की नियुक्ति राज्य सभा के सभापति द्वारा की जाती है और उनका रैंक संघ के सर्वोच्च सिविल सेवक के समतुल्य होता है। महासचिव गुमनाम रह कर कार्य करते हैं और संसदीय मामलों पर सलाह देने के लिए तत्परता से पीठासीन अधिकारियों को उपलब्ध रहते हैं। महासचिव राज्य सभा सचिवालय के प्रशासनिक प्रमुख और सभा के अभिलेखों के संरक्षक भी हैं। वह राज्य सभा के सभापति के निदेश व नियंत्रणाधीन कार्य करते हैं।
दोनों सभाओं के बीच सम्बन्ध
संविधान के अनुच्छेद 75 (3) के अधीन, मंत्री परिषद् सामूहिक रूप से लोक सभा के प्रति जिम्मेदार होती है जिसका आशय यह है कि राज्य सभा सरकार को बना या गिरा नहीं सकती है। तथापि, यह सरकार पर नियंत्रण रख सकती है और यह कार्य विशेष रूप से उस समय बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाता है जब सरकार को राज्य सभा में बहुमत प्राप्त नहीं होता है।
किसी सामान्य विधान की दशा में, दोनों सभाओं के बीच गतिरोध दूर करने के लिए, संविधान में दोनों सभाओं की संयुक्त बैठक बुलाने का उपबंध है। वस्तुत:, अतीत में ऐसे तीन अवसर आए हैं जब संसद की सभाओं की उनके बीच मतभेदों को सुलझाने के लिए संयुक्त बैठक हुई थी। संयुक्त बैठक में उठाये जाने वाले मुद्दों का निर्णय दोनों सभाओं में उपस्थित और मत देने वाले सदस्यों की कुल संख्या के बहुमत से किया जाता है। संयुक्त बैठक संसद भवन के केन्द्रीय कक्ष में आयोजित की जाती है जिसकी अध्यक्षता लोकसभाध्यक्ष द्वारा की जाती है। तथापि, धन विधेयक की दशा में, संविधान में दोनों सभाओं की संयुक्त बैठक बुलाने का कोई उपबंध नहीं है, क्योंकि लोक सभा को वित्तीय मामलों में राज्य सभा की तुलना में प्रमुखता हासिल है। संविधान संशोधन विधेयक के संबंध में, संविधान में यह उपबंध किया गया है कि ऐसे विधेयक को दोनों सभाओं द्वारा, संविधान के अनुच्छेद 368 के अधीन विहित रूप में, विशिष्ट बहुमत से पारित किया जाना होता है। अत:, संविधान संशोधन विधेयक के संबंध में दोनों सभाओं के बीच गतिरोध को दूर करने का कोई उपबंध नहीं है।
मंत्री संसद की किसी भी सभा से हो सकते हैं। इस संबंध में संविधान सभाओं के बीच कोई भेद नहीं करता है। प्रत्येक मंत्री को किसी भी सभा में बोलने और उसकी कार्यवाही में भाग लेने का अधिकार होता है, लेकिन वह उसी सभा में मत देने का हकदार होता है जिसका वह सदस्य होता है।
इसी प्रकार, संसद की सभाओं, उनके सदस्यों और उनकी समितियों की शक्तियों, विशेषाधिकारों और उन्मुक्तियों के संबंध में, दोनों सभाओं को संविधान द्वारा बिल्कुल समान धरातल पर रखा गया है।
जिन अन्य महत्त्वपूर्ण विषयों के संबंध में दोनों सभाओं को समान शक्तियां प्राप्त हैं वे इस प्रकार हैं:- राष्ट्रपति का निर्वाचन तथा महाभियोग, उपराष्ट्रपति का निर्वाचन, आपातकाल की उद्घोषणा का अनुमोदन, राज्यों में संवैधानिक तंत्र की विफलता से संबंधित उद्घोषणा और वित्तीय आपातकाल। विभिन्न संवैधानिक प्राधिकरणों आदि से प्रतिवेदन तथा पत्र प्राप्त करने के संबंध में, दोनों सभाओं को समान शक्तियां प्राप्त हैं।
इस प्रकार, यह स्पष्ट है कि मंत्री-परिषद् की सामूहिक जिम्मेदारी के मामले और कुछ ऐसे वित्तीय मामले, जो सिर्फ लोक सभा के क्षेत्राधिकार में आते हैं, के सिवाए दोनों सभाओं को समान शक्तियां प्राप्त हैं।
राज्य सभा की विशेष शक्तियां
एक परिसंघीय सदन होने के नाते राज्य सभा को संविधान के अधीन कुछ विशेष शक्तियां प्राप्त हैं। विधान से संबंधित सभी विषयों/क्षेत्रों को तीन सूचियों में विभाजित किया गया है-संघ सूची, राज्य सूची और समवर्ती सूची। संघ और राज्य सूचियां परस्पर अपवर्जित हैं-कोई भी दूसरे के क्षेत्र में रखे गए विषय पर कानून नहीं बना सकता। तथापि, यदि राज्य सभा उपस्थित और मत देने वाले सदस्यों में से कम से कम दो-तिहाई सदस्यों के बहुमत द्वारा यह कहते हुए एक संकल्प पारित करती है कि यह "राष्ट्रीय हित में आवश्यक या समीचीन" है कि संसद, राज्य सूची में प्रमाणित किसी विषय पर विधि बनाए, तो संसद भारत के संपूर्ण राज्य-क्षेत्र या उसके किसी भाग के लिए उस संकल्प में विनिर्दिष्ट विषय पर विधि बनाने हेतु अधिकार-संपन्न हो जाती है। ऐसा संकल्प अधिकतम एक वर्ष की अवधि के लिए प्रवृत्त रहेगा परन्तु यह अवधि इसी प्रकार के संकल्प को पारित करके एक वर्ष के लिए पुन: बढ़ायी जा सकती है। यदि राज्य सभा उपस्थित और मत देने वाले सदस्यों में से कम से कम दो-तिहाई सदस्यों के बहुमत द्वारा यह घोषित करते हुए एक संकल्प पारित करती है कि संघ और राज्यों के लिए सम्मिलित एक या अधिक अखिल भारतीय सेवाओं का सृजन किया जाना राष्ट्रीय हित में आवश्यक या समीचीन है, तो संसद विधि द्वारा ऐसी सेवाओं का सृजन करने के लिए अधिकार-संपन्न हो जाती है। संविधान के अधीन, राष्ट्रपति को राष्ट्रीय आपात की स्थिति में, किसी राज्य में संवैधानिक तंत्र के विफल हो जाने की स्थिति में अथवा वित्तीय आपात की स्थिति में उद्घोषणा जारी करने का अधिकार है। ऐसी प्रत्येक उद्घोषणा को संसद की दोनों सभाओं द्वारा नियत अवधि के भीतर अनुमोदित किया जाना अनिवार्य है। तथापि, कतिपय परिस्थितियों में राज्य सभा के पास इस संबंध में विशेष शक्तियाँ हैं। यदि कोई उद्घोषणा उस समय की जाती है जब लोक सभा का विघटन हो गया है अथवा लोक सभा का विघटन इसके अनुमोदन के लिए अनुज्ञात अवधि के भीतर हो जाता है और यदि इसे अनुमोदित करने वाला संकल्प राज्य सभा द्वारा अनुच्छेद 352, 356 और 360 के अधीन संविधान में विनिर्दिष्ट अवधि के भीतर पारित कर दिया जाता है, तब वह उद्घोषणा प्रभावी रहेगी।
वित्तीय मामलों में राज्य सभा धन विधेयक केवल लोक सभा में पुर:स्थापित किया जा सकता है। इसके उस सभा द्वारा पारित किए जाने के उपरान्त इसे राज्य सभा को उसकी सहमति अथवा सिफारिश के लिए पारेषित किया जाता है। ऐसे विधेयक के संबंध में राज्य सभा की शक्ति सीमित है। राज्य सभा को ऐसे विधेयक की प्राप्ति से चौदह दिन के भीतर उसे लोक सभा को लौटाना पड़ता है। यदि यह उस अवधि के भीतर लोक सभा को नहीं लौटाया जाता है तो विधेयक को उक्त अवधि की समाप्ति पर दोनों सदनों द्वारा उस रूप में पारित किया गया समझा जाएगा जिसमें इसे लोक सभा द्वारा पारित किया गया था। राज्य सभा धन विधेयक में संशोधन भी नहीं कर सकती; यह केवल संशोधनों की सिफारिश कर सकती है और लोक सभा, राज्य सभा की सभी या किन्हीं सिफारिशों को स्वीकार अथवा अस्वीकार कर सकेगी।
धन विधेयक के अलावा, वित्त विधेयकों की कतिपय अन्य श्रेणियों को भी राज्य सभा में पुर:स्थापित नहीं किया जा सकता। तथापि, कुछ अन्य प्रकार के वित्त विधेयक हैं जिनके संबंध में राज्य सभा की शक्तियों पर कोई निर्बंधन नहीं है। ये विधेयक किसी भी सभा में प्रस्तुत किए जा सकते हैं और राज्य सभा को ऐसे वित्त विधेयकों को किसी अन्य विधेयक की तरह ही अस्वीकृत या संशोधित करने का अधिकार है। वस्तुत: ऐसे विधेयक संसद की किसी भी सभा द्वारा तब तक पारित नहीं किए जा सकते, जब तक राष्ट्रपति ने उस पर विचार करने के लिए उस सभा से सिफारिश नहीं की हो। तथापि, इन सारी बातों से यह निष्कर्ष नहीं निकलता कि राज्य सभा का वित्त संबंधी मामलों से कुछ भी लेना-देना नहीं है। भारत सरकार के बजट को प्रतिवर्ष राज्य सभा के समक्ष भी रखा जाता है और इसके सदस्यगण उस पर चर्चा करते हैं। यद्यपि राज्य सभा विभिन्न मंत्रालयों की अनुदान मांगों पर मतदान नहीं करती - यह मामला अनन्य रूप से लोक सभा के लिए सुरक्षित है फिर भी, भारत की संचित निधि से किसी धन की निकासी तब तक नहीं की जा सकती, जब तक दोनों सभाओं द्वारा विनियोग विधेयक को पारित नहीं कर दिया जाता। इसी प्रकार, वित्त विधेयक को भी राज्य सभा के समक्ष लाया जाता है। इसके अलावा, विभाग-संबंधित संसदीय स्थायी समितियां, जो मंत्रालयों/विभागों की वार्षिक अनुदान मांगों की जांच करती हैं, संयुक्त समितियां हैं जिनमें दस सदस्य राज्य सभा से होते हैं।
सभा के नेता
सभापति और उपसभापति के अलावा, सभा का नेता एक अन्य ऐसा अधिकारी है जो सभा के कुशल और सुचारू संचालन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। राज्य सभा में सभा का नेता सामान्यतया प्रधान मंत्री होता है, यदि वह इसका सदस्य है, अथवा कोई ऐसा मंत्री होता है, जो इस सभा का सदस्य है और जिसे उनके द्वारा इस रूप में कार्य करने के लिए नाम-निर्दिष्ट किया गया हो। उसका प्राथमिक उत्तरदायित्व सभा में सौहार्दपूर्ण और सार्थक वाद-विवाद के लिए सभा के सभी वर्गों के बीच समन्वय बनाए रखना है। इस प्रयोजनार्थ, वह न केवल सरकार के, बल्कि विपक्ष, मंत्रियों और पीठासीन अधिकारी के भी निकट संपर्क में रहता है। वह सभा-कक्ष (चैम्बर) में सभापीठ के दायीं ओर की पहली पंक्ति में पहली सीट पर बैठता है ताकि वह परामर्श हेतु पीठासीन अधिकारी को सहज उपलब्ध रहे। नियमों के तहत, सभापति द्वारा सभा में सरकारी कार्य की व्यवस्था, राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चर्चा हेतु दिनों के आवंटन अथवा समय के आवंटन, शुक्रवार के अलावा किसी अन्य दिन को गैर-सरकारी सदस्यों के कार्य, अनियत दिन वाले प्रस्तावों पर चर्चा, अल्पकालिक चर्चा और किसी धन विधेयक पर विचार एवं उसे वापस किये जाने के संबंध में सदन के नेता से परामर्श किया जाता है। महान व्यक्तित्व, राष्ट्रीय नेता अथवा अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठित व्यक्ति की मृत्यु होने की स्थिति में उस दिन के लिए सभा के स्थगन अथवा अन्यथा के मामले में सभापति उनसे भी परामर्श कर सकते हैं। गठबंधन सरकारों के युग में उनका कार्य और अधिक चुनौतीपूर्ण हो गया है। वह यह सुनिश्चित करते हैं कि सभा के समक्ष लाये गए किसी भी मामले पर सार्थक चर्चा के लिए सभा में हर संभव तथा उचित सुविधा प्रदान की जाए। वह सभा की राय व्यक्त करने और इसे समारोह अथवा औपचारिक अवसरों पर प्रस्तुत करने में सभा के वक्ता के रूप में कार्य करते हैं। निम्नलिखित सदस्य राज्य सभा में सभा के नेता रहे हैं:
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