संसद भारत राष्ट्र की सबसे बड़ी शासकीय व विधायी निकाय है. भारतीय संसद के तीन अंग हैं. १. राष्ट्रपति, २. लोकसभा एवं ३. राज्यसभा.
लोकसभा निम्न सदन (लोगों का सदन) तथा राज्यसभा को उच्च सदन (राज्यों की परिषद्) कहा जाता है. भारत के महामहीम राष्ट्रपति में संसद की सर्वोच्च शक्ति निहित होती है. राष्ट्रपति को दोनों में से किसी भी सदन को बुलाने अथवा स्थगित करने तथा लोकसभा को भंग करने की शक्ति प्राप्त है.
लोक सभा में राष्ट्र की जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि होते हैं जिनकी अधिकतम संख्या ५५२ है. राज्य सभा एक स्थायी सदन है जिसमें सदस्य संख्या २५० है. राज्या सभा के सदस्यों का निर्वाचन / मनोनयन ६ वर्ष के लिए होता है. जिसके १/३ सदस्य प्रत्येक २ वर्ष में सेवानिवृत्त होते है.
समाचार
समाचार नवीनतम घटनाओं और समसामयिक विषयों पर अद्यतन सूचनाओं को कहते हैं, जिन्हें मुद्रण, प्रसारण, अंतर्जाल या अन्य माध्यमों की सहायता से आम लोगों यानी, पाठकों, दर्शकों और श्रोताओं तक पहुंचाया जाता है. समाचार अंग्रेजी शब्द न्यूज का हिंदी रूपांतरण है.
[संपादित करें] शब्दार्थ
समाचार शब्द सम+आचरण का सम्मिलत रूप है. समाचारों में निष्पक्षता पर जोर दिया जाता है. अर्थात् सभी के प्रति समान आचरण बरतते हुए(स्वयं निष्पक्ष रहते हुए समाचार दिया जाता है)
[संपादित करें] इतिहास
आरंभिक अवस्था में, घटनाओं की जानकारी फोन पर दी जाती थी या संवाददाता खुद समाचार कक्ष तक पहुंच कर सूचनाएं पहुंचाता था. जहां किसी विशेष संस्करण के लिए हाथों से लिखकर या टाइप कर जानकारी पहुंचाई जाती थी. लेकिन आजकल ब्रेकिंग न्यूज आधुनिक प्रसार मीडिया का युगधर्म बन गया है. ताजा घटनाओं की जानकारी देने के लिए आजकल उपग्रहों का प्रयोग होता है और घटनास्थल से जानकारी सीधे दर्शकों के कमरे तक पहुंचा दी जाती है.
हिन्दी पत्रकारिता
हिन्दी पत्रकारिता की कहानी भारतीय राष्ट्रीयता की कहानी है। हिन्दी पत्रकारिता के आदि उन्नायक जातीय चेतना, युगबोध और अपने महत् दायित्व के प्रति पूर्ण सचेत थे। कदाचित् इसलिए विदेशी सरकार की दमन-नीति का उन्हें शिकार होना पड़ा था, उसके नृशंस व्यवहार की यातना झेलनी पड़ी थी। उन्नीसवीं शताब्दी में हिन्दी गद्य-निर्माण की चेष्ठा और हिन्दी-प्रचार आन्दोलन अत्यन्त प्रतिकूल परिस्थितियों में भयंकर कठिनाइयों का सामना करते हुए भी कितना तेज और पुष्ट था इसका साक्ष्य ‘भारतमित्र’ (सन् 1878 ई, में) ‘सार सुधानिधि’ (सन् 1879 ई.) और ‘उचितवक्ता’ (सन् 1880 ई.) के जीर्ण पष्ठों पर मुखर है।
हिन्दी पत्रकारिता में अंग्रेजी पत्रकारिता के दबदबे को खत्म कर दिया है। पहले देश-विदेश में अंग्रेजी पत्रकारिता का दबदबा था लेकिन आज हिन्दी भाषा का परचम चंहुदिश फैल रहा है।
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[संपादित करें] भारतीय भाषाओं में पत्रकारिता का आरम्भ और हिन्दी पत्रकारिता
भारतवर्ष में आधुनिक ढंग की पत्रकारिता का जन्म अठारहवीं शताब्दी के चतुर्थ चरण में कलकत्ता, बंबई और मद्रास में हुआ। 1780 ई. में प्रकाशित हिके (Hickey) का "कलकत्ता गज़ट" कदाचित् इस ओर पहला प्रयत्न था। हिंदी के पहले पत्र उदंत मार्तण्ड (1826) के प्रकाशित होने तक इन नगरों की ऐंग्लोइंडियन अंग्रेजी पत्रकारिता काफी विकसित हो गई थी।
इन अंतिम वर्षों में फारसी भाषा में भी पत्रकारिता का जन्म हो चुका था। 18वीं शताब्दी के फारसी पत्र कदाचित् हस्तलिखित पत्र थे। 1801 में हिंदुस्थान इंटेलिजेंस ओरिऐंटल ऐंथॉलॉजी (Hindusthan Intelligence Oriental Anthology) नाम का जो संकलन प्रकाशित हुआ उसमें उत्तर भारत के कितने ही "अखबारों" के उद्धरण थे। 1810 में मौलवी इकराम अली ने कलकत्ता से लीथो पत्र "हिंदोस्तानी" प्रकाशित करना आरंभ किया। 1816 में गंगाकिशोर भट्टाचार्य ने "बंगाल गजट" का प्रवर्तन किया। यह पहला बंगला पत्र था। बाद में श्रीरामपुर के पादरियों ने प्रसिद्ध प्रचारपत्र "समाचार दर्पण" को (27 मई, 1818) जन्म दिया। इन प्रारंभिक पत्रों के बाद 1823 में हमें बँगला भाषा के समाचारचंद्रिका और "संवाद कौमुदी", फारसी उर्दू के "जामे जहाँनुमा" और "शमसुल अखबार" तथा गुजराती के "मुंबई समाचार" के दर्शन होते हैं।
यह स्पष्ट है कि हिंदी पत्रकारिता बहुत बाद की चीज नहीं है। दिल्ली का "उर्दू अखबार" (1833) और मराठी का "दिग्दर्शन" (1837) हिंदी के पहले पत्र "उदंत मार्तंड" (1826) के बाद ही आए। "उदंत मार्तंड" के संपादक पंडित जुगलकिशोर थे। यह साप्ताहिक पत्र था। पत्र की भाषा पछाँही हिंदी रहती थी, जिसे पत्र के संपादकों ने "मध्यदेशीय भाषा" कहा है। यह पत्र 1827 में बंद हो गया। उन दिनों सरकारी सहायता के बिना किसी भी पत्र का चलना असंभव था। कंपनी सरकार ने मिशनरियों के पत्र को डाक आदि की सुविधा दे रखी थी, परंतु चेष्टा करने पर भी "उदंत मार्तंड" को यह सुविधा प्राप्त नहीं हो सकी।
[संपादित करें] हिंदी पत्रकारिता का पहला चरण
1826 ई. से 1873 ई. तक को हम हिंदी पत्रकारिता का पहला चरण कह सकते हैं। 1873 ई. में भारतेंदु ने "हरिश्चंद्र मैगजीन" की स्थापना की। एक वर्ष बाद यह पत्र "हरिश्चंद्र चंद्रिका" नाम से प्रसिद्ध हुआ। वैसे भारतेंदु का "कविवचन सुधा" पत्र 1867 में ही सामने आ गया था और उसने पत्रकारिता के विकास में महत्वपूर्ण भाग लिया था; परंतु नई भाषाशैली का प्रवर्तन 1873 में "हरिश्चंद्र मैगजीन" से ही हुआ। इस बीच के अधिकांश पत्र प्रयोग मात्र कहे जा सकते हैं और उनके पीछे पत्रकला का ज्ञान अथवा नए विचारों के प्रचार की भावना नहीं है। "उदंत मार्तंड" के बाद प्रमुख पत्र हैं :
बंगदूत (1829), प्रजामित्र (1834), बनारस अखबार (1845), मार्तंड पंचभाषीय (1846), ज्ञानदीप (1846), मालवा अखबार (1849), जगद्दीप भास्कर (1849), सुधाकर (1850), साम्यदंड मार्तंड (1850), मजहरुलसरूर (1850), बुद्धिप्रकाश (1852), ग्वालियर गजेट (1853), समाचार सुधावर्षण (1854), दैनिक कलकत्ता, प्रजाहितैषी (1855), सर्वहितकारक (1855), सूरजप्रकाश (1861), जगलाभचिंतक (1861), सर्वोपकारक (1861), प्रजाहित (1861), लोकमित्र (1835), भारतखंडामृत (1864), तत्वबोधिनी पत्रिका (1865), ज्ञानप्रदायिनी पत्रिका (1866), सोमप्रकाश (1866), सत्यदीपक (1866), वृत्तांतविलास (1867), ज्ञानदीपक (1867), कविवचनसुधा (1867), धर्मप्रकाश (1867), विद्याविलास (1867), वृत्तांतदर्पण (1867), विद्यादर्श (1869), ब्रह्मज्ञानप्रकाश (1869), अलमोड़ा अखबार (1870), आगरा अखबार (1870), बुद्धिविलास (1870), हिंदू प्रकाश (1871), प्रयागदूत (1871), बुंदेलखंड अखबर (1871), प्रेमपत्र (1872), और बोधा समाचार (1872)।
इन पत्रों में से कुछ मासिक थे, कुछ साप्ताहिक। दैनिक पत्र केवल एक था "समाचार सुधावर्षण" जो द्विभाषीय (बंगला हिंदी) था और कलकत्ता से प्रकाशित होता था। यह दैनिक पत्र 1871 तक चलता रहा। अधिकांश पत्र आगरा से प्रकाशित होते थे जो उन दिनों एक बड़ा शिक्षाकेंद्र था, और विद्यार्थीसमाज की आवश्यकताओं की पूर्ति करते थे। शेष ब्रह्मसमाज, सनातन धर्म और मिशनरियों के प्रचार कार्य से संबंधित थे। बहुत से पत्र द्विभाषीय (हिंदी उर्दू) थे और कुछ तो पंचभाषीय तक थे। इससे भी पत्रकारिता की अपरिपक्व दशा ही सूचित होती है। हिंदीप्रदेश के प्रारंभिक पत्रों में "बनारस अखबार" (1845) काफी प्रभावशाली था और उसी की भाषानीति के विरोध में 1850 में तारामोहन मैत्र ने काशी से साप्ताहिक "सुधाकर" और 1855 में राजा लक्ष्मणसिंह ने आगरा से "प्रजाहितैषी" का प्रकाशन आरंभ किया था। राजा शिवप्रसाद का "बनारस अखबार" उर्दू भाषाशैली को अपनाता था तो ये दोनों पत्र पंडिताऊ तत्समप्रधान शैली की ओर झुकते थे। इस प्रकार हम देखते हैं कि 1867 से पहले भाषाशैली के संबंध में हिंदी पत्रकार किसी निश्चित शैली का अनुसरण नहीं कर सके थे। इस वर्ष कवि वचनसुधा का प्रकाशन हुआ और एक तरह से हम उसे पहला महत्वपूर्ण पत्र कह सकते हैं। पहले यह मासिक था, फिर पाक्षिक हुआ और अंत में साप्ताहिक। भारतेंदु के बहुविध व्यक्तित्व का प्रकाशन इस पत्र के माध्यम से हुआ, परंतु सच तो यह है कि "हरिश्चंद्र मैगजीन" के प्रकाशन (1873) तक वे भी भाषाशैली और विचारों के क्षेत्र में मार्ग ही खोजते दिखाई देते हैं।
[संपादित करें] हिंदी पत्रकारिता का दूसरा युग : भारतेंदु युग
हिंदी पत्रकारिता का दूसरा युग 1873 से 1900 तक चलता है। इस युग के एक छोर पर भारतेंदु का "हरिश्चंद्र मैगजीन" था ओर नागरीप्रचारिणी सभा द्वारा अनुमोदनप्राप्त "सरस्वती"। इन 27 वर्षों में प्रकाशित पत्रों की संख्या 300-350 से ऊपर है और ये नागपुर तक फैले हुए हैं। अधिकांश पत्र मासिक या साप्ताहिक थे। मासिक पत्रों में निबंध, नवल कथा (उपन्यास), वार्ता आदि के रूप में कुछ अधिक स्थायी संपत्ति रहती थी, परंतु अधिकांश पत्र 10-15 पृष्ठों से अधिक नहीं जाते थे और उन्हें हम आज के शब्दों में "विचारपत्र" ही कह सकते हैं। साप्ताहिक पत्रों में समाचारों और उनपर टिप्पणियों का भी महत्वपूर्ण स्थान था। वास्तव में दैनिक समाचार के प्रति उस समय विशेष आग्रह नहीं था और कदाचित् इसीलिए उन दिनों साप्ताहिक और मासिक पत्र कहीं अधिक महत्वपूर्ण थे। उन्होंने जनजागरण में अत्यंत महत्वपूर्ण भाग लिया था।
उन्नीसवीं शताब्दी के इन 25 वर्षों का आदर्श भारतेंदु की पत्रकारिता थी। "कविवचनसुधा" (1867), "हरिश्चंद्र मैगजीन" (1874), श्री हरिश्चंद्र चंद्रिका" (1874), बालबोधिनी (स्त्रीजन की पत्रिक, 1874) के रूप में भारतेंदु ने इस दिशा में पथप्रदर्शन किया था। उनकी टीकाटिप्पणियों से अधिकरी तक घबराते थे और "कविवचनसुधा" के "पंच" पर रुष्ट होकर काशी के मजिस्ट्रेट ने भारतेंदु के पत्रों को शिक्षा विभाग के लिए लेना भी बंद करा दिया था। इसमें संदेह नहीं कि पत्रकारिता के क्षेत्र भी भारतेंदु पूर्णतया निर्भीक थे और उन्होंने नए नए पत्रों के लिए प्रोत्साहन दिया। "हिंदी प्रदीप", "भारतजीवन" आदि अनेक पत्रों का नामकरण भी उन्होंने ही किया था। उनके युग के सभी पत्रकार उन्हें अग्रणी मानते थे।
[संपादित करें] भारतेंदु के बाद
भारतेंदु के बाद इस क्षेत्र में जो पत्रकार आए उनमें प्रमुख थे पंडित रुद्रदत्त शर्म, (भारतमित्र, 1877), बालकृष्ण भट्ट (हिंदी प्रदीप, 1877), दुर्गाप्रसाद मिश्र (उचित वक्ता, 1878), पंडित सदानंद मिश्र (सारसुधानिधि, 1878), पंडित वंशीधर (सज्जन-कीर्त्ति-सुधाकर, 1878), बदरीनारायण चौधरी "प्रेमधन" (आनंदकादंबिनी, 1881), देवकीनंदन त्रिपाठी (प्रयाग समाचार, 1882), राधाचरण गोस्वामी (भारतेंदु, 1882), पंडित गौरीदत्त (देवनागरी प्रचारक, 1882), राज रामपाल सिंह (हिंदुस्तान, 1883), प्रतापनारायण मिश्र (ब्राह्मण, 1883), अंबिकादत्त व्यास, (पीयूषप्रवाह, 1884), बाबू रामकृष्ण वर्मा (भारतजीवन, 1884), पं. रामगुलाम अवस्थी (शुभचिंतक, 1888), योगेशचंद्र वसु (हिंदी बंगवासी, 1890), पं. कुंदनलाल (कवि व चित्रकार, 1891), और बाबू देवकीनंदन खत्री एवं बाबू जगन्नाथदास (साहित्य सुधानिधि, 1894)। 1895 ई. में "नागरीप्रचारिणी पत्रिका" का प्रकाशन आरंभ होता है। इस पत्रिका से गंभीर साहित्यसमीक्षा का आरंभ हुआ और इसलिए हम इसे एक निश्चित प्रकाशस्तंभ मान सकते हैं। 1900 ई. में "सरस्वती" और "सुदर्शन" के अवतरण के साथ हिंदी पत्रकारिता के इस दूसरे युग पर पटाक्षेप हो जाता है।
इन 25 वर्षों में हमारी पत्रकारिता अनेक दिशाओं में विकसित हुई। प्रारंभिक पत्र शिक्षाप्रसार और धर्मप्रचार तक सीमित थे। भारतेंदु ने सामाजिक, राजनीतिक और साहित्यिक दिशाएँ भी विकसित कीं। उन्होंने ही "बालाबोधिनी" (1874) नाम से पहला स्त्री-मासिक-पत्र चलाया। कुछ वर्ष बाद महिलाओं को स्वयं इस क्षेत्र में उतरते देखते हैं - "भारतभगिनी" (हरदेवी, 1888), "सुगृहिणी" (हेमंतकुमारी, 1889)। इन वर्षों में धर्म के क्षेत्र में आर्यसमाज और सनातन धर्म के प्रचारक विशेष सक्रिय थे। ब्रह्मसमाज और राधास्वामी मत से संबंधित कुछ पत्र और मिर्जापुर जैसे ईसाई केंद्रों से कुछ ईसाई धर्म संबंधी पत्र भी सामने आते हैं, परंतु युग की धार्मिक प्रतिक्रियाओं को हम आर्यसमाज के और पौराणिकों के पत्रों में ही पाते हैं। आज ये पत्र कदाचित् उतने महत्वपूर्ण नहीं जान पड़ते, परंतु इसमें संदेह नहीं कि उन्होंने हमारी गद्यशैली को पुष्ट किया और जनता में नए विचारों की ज्योति भी। इन धार्मिक वादविवादों के फलस्वरूप समाज के विभिन्न वर्ग और संप्रदाय सुधार की ओर अग्रसर हुए और बहुत शीघ्र ही सांप्रदायिक पत्रों की बाढ़ आ गई। सैकड़ों की संख्या में विभिन्न जातीय और वर्गीय पत्र प्रकाशित हुए और उन्होंने असंख्य जनों को वाणी दी।
आज वही पत्र हमारी इतिहासचेतना में विशेष महत्वपूर्ण हैं जिन्होंने भाषा शैली, साहित्य अथवा राजनीति के क्षेत्र में कोई अप्रतिम कार्य किया हो। साहित्यिक दृष्टि से "हिंदी प्रदीप" (1877), ब्राह्मण (1883), क्षत्रियपत्रिका (1880), आनंदकादंबिनी (1881), भारतेंदु (1882), देवनागरी प्रचारक (1882), वैष्णव पत्रिका (पश्चात् पीयूषप्रवाह, 1883), कवि के चित्रकार (1891), नागरी नीरद (1883), साहित्य सुधानिधि (1894), और राजनीतिक दृष्टि से भारतमित्र (1877), उचित वक्ता (1878), सार सुधानिधि (1878), भारतोदय (दैनिक, 1883), भारत जीवन (1884), भारतोदय (दैनिक, 1885), शुभचिंतक (1887) और हिंदी बंगवासी (1890) विशेष महत्वपूर्ण हैं। इन पत्रों में हमारे 19वीं शताब्दी के साहित्यरसिकों, हिंदी के कर्मठ उपासकों, शैलीकारों और चिंतकों की सर्वश्रेष्ठ निधि सुरक्षित है। यह क्षोभ का विषय है कि हम इस महत्वपूर्ण सामग्री का पत्रों की फाइलों से उद्धार नहीं कर सके। बालकृष्ण भट्ट, प्रतापनारायण मिश्र, सदानं मिश्र, रुद्रदत्त शर्मा, अंबिकादत्त व्यास और बालमुकुंद गुप्त जैसे सजीव लेखकों की कलम से निकले हुए न जाने कितने निबंध, टिप्पणी, लेख, पंच, हास परिहास औप स्केच आज में हमें अलभ्य हो रहे हैं। आज भी हमारे पत्रकार उनसे बहुत कुछ सीख सकते हैं। अपने समय में तो वे अग्रणी थे ही।
[संपादित करें] तीसरा चरण : बीसवीं शताब्दी के प्रथम बीस वर्ष
बीसवीं शताब्दी की पत्रकारिता हमारे लिए अपेक्षाकृत निकट है और उसमें बहुत कुछ पिछले युग की पत्रकारिता की ही विविधता और बहुरूपता मिलती है। 19वीं शती के पत्रकारों को भाषा-शैलीक्षेत्र में अव्यवस्था का सामना करना पड़ा था। उन्हें एक ओर अंग्रेजी और दूसरी ओर उर्दू के पत्रों के सामने अपनी वस्तु रखनी थी। अभी हिंदी में रुचि रखनेवाली जनता बहुत छोटी थी। धीरे-धीरे परिस्थिति बदली और हम हिंदी पत्रों को साहित्य और राजनीति के क्षेत्र में नेतृत्व करते पाते हैं। इस शताब्दी से धर्म और समाजसुधार के आंदोलन कुछ पीछे पड़ गए और जातीय चेतना ने धीरे-धीरे राष्ट्रीय चेतना का रूप ग्रहण कर लिया। फलत: अधिकांश पत्र, साहित्य और राजनीति को ही लेकर चले। साहित्यिक पत्रों के क्षेत्र में पहले दो दशकों में आचार्य द्विवेदी द्वारा संपादित "सरस्वती" (1903-1918) का नेतृत्व रहा। वस्तुत: इन बीस वर्षों में हिंदी के मासिक पत्र एक महान् साहित्यिक शक्ति के रूप में सामने आए। शृंखलित उपन्यास कहानी के रूप में कई पत्र प्रकाशित हुए - जैसे उपन्यास 1901, हिंदी नाविल 1901, उपन्यास लहरी 1902, उपन्याससागर 1903, उपन्यास कुसुमांजलि 1904, उपन्यासबहार 1907, उपन्यास प्रचार 19012। केवल कविता अथवा समस्यापूर्ति लेकर अनेक पत्र उन्नीसवीं शतब्दी के अंतिम वर्षों में निकलने लगे थे। वे चले रहे। समालोचना के क्षेत्र में "समालोचक" (1902) और ऐतिहासिक शोध से संबंधित "इतिहास" (1905) का प्रकाशन भी महत्वपूर्ण घटनाएँ हैं। परंतु सरस्वती ने "मिस्लेनी" () के रूप में जो आदर्श रखा था, वह अधिक लोकप्रिय रहा और इस श्रेणी के पत्रों में उसके साथ कुछ थोड़े ही पत्रों का नाम लिया जा सकता है, जैसे "भारतेंदु" (1905), नागरी हितैषिणी पत्रिका, बाँकीपुर (1905), नागरीप्रचारक (1906), मिथिलामिहिर (1910) और इंदु (1909)। "सरस्वती" और "इंदु" दोनों हमारी साहित्यचेतना के इतिहास के लिए महत्वपूर्ण हैं और एक तरह से हम उन्हें उस युग की साहित्यिक पत्रकारिता का शीर्षमणि कह सकते हैं। "सरस्वती" के माध्यम से आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी और "इंदु" के माध्यम से पंडित रूपनारायण पांडेय ने जिस संपादकीय सतर्कता, अध्यवसाय और ईमानदारी का आदर्श हमारे सामने रखा वह हमारी पत्रकारित को एक नई दिशा देने में समर्थ हुआ।
परंतु राजनीतिक क्षेत्र में हमारी पत्रकारिता को नेतृत्व प्राप्त नहीं हो सका। पिछले युग की राजनीतिक पत्रकारिता का केंद्र कलकत्ता था। परंतु कलकत्ता हिंदी प्रदेश से दूर पड़ता था और स्वयं हिंदी प्रदेश को राजनीतिक दिशा में जागरूक नेतृत्व कुछ देर में मिला। हिंदी प्रदेश का पहला दैनिक राजा रामपालसिंह का द्विभाषीय "हिंदुस्तान" (1883) है जो अंग्रेजी और हिंदी में कालाकाँकर से प्रकाशित होता था। दो वर्ष बाद (1885 में), बाबू सीताराम ने "भारतोदय" नाम से एक दैनिक पत्र कानपुर से निकालना शुरू किया। परंतु ये दोनों पत्र दीर्घजीवी नहीं हो सके और साप्ताहिक पत्रों को ही राजनीतिक विचारधारा का वाहन बनना पड़ा। वास्तव में उन्नीसवीं शतब्दी में कलकत्ता के भारत मित्र, वंगवासी, सारसुधानिधि और उचित वक्ता ही हिंदी प्रदेश की रानीतिक भावना का प्रतिनिधित्व करते थे। इनमें कदाचित् "भारतमित्र" ही सबसे अधिक स्थायी और शक्तिशाली था। उन्नीसवीं शताब्दी में बंगाल और महाराष्ट्र लोक जाग्रति के केंद्र थे और उग्र राष्ट्रीय पत्रकारिता में भी ये ही प्रांत अग्रणी थे। हिंदी प्रदेश के पत्रकारों ने इन प्रांतों के नेतृत्व को स्वीकार कर लिया और बहुत दिनों तक उनका स्वतंत्र राजनीतिक व्यक्तित्व विकसित नहीं हो सका। फिर भी हम "अभ्युदय" (1905), "प्रताप" (1913), "कर्मयोगी", "हिंदी केसरी" (1904-1908) आदि के रूप में हिंदी राजनीतिक पत्रकारिता को कई डग आगे बढ़ाते पाते हैं। प्रथम महायुद्ध की उत्तेजना ने एक बार फिर कई दैनिक पत्रों को जन्म दिया। कलकत्ता से "कलकत्ता समाचार", "स्वतंत्र" और "विश्वमित्र" प्रकाशित हुए, बंबई से "वेंकटेश्वर समाचार" ने अपना दैनिक संस्करण प्रकाशित करना आरंभ किया और दिल्ली से "विजय" निकला। 1921 में काशी से "आज" और कानपुर से "वर्तमान" प्रकाशित हुए। इस प्रकार हम देखते हैं कि 1921 में हिंदी पत्रकारिता फिर एक बार करवटें लेती है और राजनीतिक क्षेत्र में अपना नया जीवन आरंभ करती है। हमारे साहित्यिक पत्रों के क्षेत्र में भी नई प्रवृत्तियों का आरंभ इसी समय से होता है। फलत: बीसवीं शती के पहले बीस वर्षों को हम हिंदी पत्रकारिता का तीसरा चरण कह सकते हैं।
[संपादित करें] आधुनिक युग
1921 के बाद हिंदी पत्रकारिता का समसामयिक युग आरंभ होता है। इस युग में हम राष्ट्रीय और साहित्यिक चेतना को साथ साथ पल्लवित पाते हैं। इसी समय के लगभग हिंदी का प्रवेश विश्वविद्यालयों में हुआ और कुछ ऐसे कृती संपादक सामने आए जो अंग्रेजी की पत्रकारिता से पूर्णत: परिचित थे और जो हिंदी पत्रों को अंग्रेजी, मराठी और बँगला के पत्रों के समकक्ष लाना चाहते थे। फलत: साहित्यिक पत्रकारिता में एक नए युग का आरंभ हुआ। राष्ट्रीय आंदोलनों ने हिंदी की राष्ट्रभाषा के लिए योग्यता पहली बार घोषित की ओर जैसे-जैसे राष्ट्रीय आंदोलनों का बल बढ़ने लगा, हिंदी के पत्रकार और पत्र अधिक महत्व पाने लगे। 1921 के बाद गांधी जी के नेतृत्व में राष्ट्रीय आंदोलन मध्यवर्ग तक सीमित न रहकर ग्रामीणों और श्रमिकों तक पहुंच गया और उसके इस प्रसार में हिंदी पत्रकारिता ने महत्वपूर्ण योग दिया। सच तो यह है कि हिंदी पत्रकार राष्ट्रीय आंदोलनों की अग्र पंक्ति में थे और उन्होंने विदेशी सत्ता से डटकर मोर्चा लिया। विदेशी सरकार ने अनेक बार नए नए कानून बनाकर समाचारपत्रों की स्वतंत्रता पर कुठाराघात किया परंतु जेल, जुर्माना और अनेकानेक मानसिक और आर्थिक कठिनाइयाँ झेलते हुए भी हमारे पत्रकारों ने स्वतंत्र विचार की दीपशिखा जलाए रखी।
1921 के बाद साहित्यक्षेत्र में जो पत्र आए उनमें प्रमुख हैं स्वार्थ (1922), माधुरी (1923), मर्यादा, चाँद (1923), मनोरमा (1924), समालोचक (1924), चित्रपट (1925), कल्याण (1926), सुधा (1927), विशालभारत (1928), त्यागभूमि (1928), हंस (1930), गंगा (1930), विश्वमित्र (1933), रूपाभ (1938), साहित्य संदेश (1938), कमला (1939), मधुकर (1940), जीवनसाहित्य (1940), विश्वभारती (1942), संगम (1942), कुमार (1944), नया साहित्य (1945), पारिजात (1945), हिमालय (1946) आदि। वास्तव में आज हमारे मासिक साहित्य की प्रौढ़ता और विविधता में किसी प्रकार का संदेह नहीं हो सकता। हिंदी की अनेकानेक प्रथम श्रेणी की रचनाएँ मासिकों द्वारा ही पहले प्रकाश में आई और अनेक श्रेष्ठ कवि और साहित्यकार पत्रकारिता से भी संबंधित रहे। आज हमारे मासिक पत्र जीवन और साहित्य के सभी अंगों की पूर्ति करते हैं और अब विशेषज्ञता की ओर भी ध्यान जाने लगा है। साहित्य की प्रवृत्तियों की जैसी विकासमान झलक पत्रों में मिलती है, वैसी पुस्तकों में नहीं मिलती। वहाँ हमें साहित्य का सक्रिय, सप्राण, गतिशील रूप प्राप्त होता है।
राजनीतिक क्षेत्र में इस युग में जिन पत्रपत्रिकाओं की धूम रही वे हैं - कर्मवीर (1924), सैनिक (1924), स्वदेश (1921), श्रीकृष्णसंदेश (1925), हिंदूपंच (1926), स्वतंत्र भारत (1928), जागरण (1929), हिंदी मिलाप (1929), सचित्र दरबार (1930), स्वराज्य (1931), नवयुग (1932), हरिजन सेवक (1932), विश्वबंधु (1933), नवशक्ति (1934), योगी (1934), हिंदू (1936), देशदूत (1938), राष्ट्रीयता (1938), संघर्ष (1938), चिनगारी (1938), नवज्योति (1938), संगम (1940), जनयुग (1942), रामराज्य (1942), संसार (1943), लोकवाणी (1942), सावधान (1942), हुंकार (1942), और सन्मार्ग (1943),जनवार्ता (१९७२) इनमें से अधिकांश साप्ताहिक हैं, परंतु जनमन के निर्माण में उनका योगदान महत्वपूर्ण रहा है। जहाँ तक पत्र कला का संबंध है वहाँ तक हम स्पष्ट रूप से कह सकते हैं कि तीसरे और चौथे युग के पत्रों में धरती और आकाश का अंतर है। आज पत्रसंपादन वास्तव में उच्च कोटि की कला है। राजनीतिक पत्रकारिता के क्षेत्र में "आज" (1921) और उसके संपादक स्वर्गीय बाबूराव विष्णु पराड़कर का लगभग वही स्थान है जो साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी को प्राप्त है। सच तो यह है कि "आज" ने पत्रकला के क्षेत्र में एक महान् संस्था का काम किया है और उसने हिंदी को बीसियों पत्रसंपादक और पत्रकार दिए हैं।
आधुनिक साहित्य के अनेक अंगों की भाँति हमारी पत्रकारिता भी नई कोटि की है और उसमें भी मुख्यत: हमारे मध्यवित्त वर्ग की सामाजिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक औ राजनीतिक हलचलों का प्रतिबिंब भास्वर है। वास्तव में पिछले 140 वर्षों का सच्चा इतिहास हमारी पत्रपत्रिकाओं से ही संकलित हो सकता है। बँगला के "कलेर कथा" ग्रंथ में पत्रों के अवतरणों के आधार पर बंगाल के उन्नीसवीं शताब्दी के मध्यवित्तीय जीवन के आकलन का प्रयत्न हुआ है। हिंदी में भी ऐसा प्रयत्न वांछनीय है। एक तरह से उन्नीसवीं शती में साहित्य कही जा सकनेवाली चीज बहुत कम है और जो है भी, वह पत्रों के पृष्ठों में ही पहले-पहल सामने आई है। भाषाशैली के निर्माण और जातीय शैली के विकास में पत्रों का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण रहा है, परंतु बीसवीं शती के पहले दो दशकों के अंत तक मासिक पत्र और साप्ताहिक पत्र ही हमारी साहित्यिक प्रवृत्तियों को जन्म देते और विकसित करते रहे हैं। द्विवेदी युग के साहित्य को हम "सरस्वती" और "इंदु" में जिस प्रयोगात्मक रूप में देखते हैं, वही उस साहित्य का असली रूप है। 1921 ई. के बाद साहित्य बहुत कुछ पत्रपत्रिकाओं से स्वतंत्र होकर अपने पैरों पर खड़ा होने लगा, परंतु फिर भी विशिष्ट साहित्यिक आंदोलनों के लिए हमें मासिक पत्रों के पृष्ठ ही उलटने पड़ते हैं। राजनीतिक चेतना के लिए तो पत्रपत्रिकाएँ हैं ही। वस्तुत: पत्रपत्रिकाएँ जितनी बड़ी जनसंख्या को छूती हैं, विशुद्ध साहित्य का उतनी बड़ी जनसंख्या तक पहुँचना असंभव है।
सत्य
न्याय दर्शन में प्रमुख रूप में प्रत्येक निर्णय और अनुमान पर विचार होता है। इनमें निर्णय का स्थान केंद्रीय है। निर्णय का शाब्दिक प्रकाशन वाक्य है। जब हम किसी वाक्य को सुनते हैं, तो उसे स्वीकार करते हैं या अस्वीकार करते हैं; स्वीकार और अस्वीकार में निश्चय न कर सकने की अवस्था संदेह कहलाती है। प्रत्येक निर्णय सत्य होने का दावा करता है। जब हम इसे स्वीकार करते हैं तो इसके दावे को सत्य मानते हैं; अस्वीकार करने में उसे असत्य कहते हैं। विश्वास हमारी साधारण मानसिक अवस्था है। जब किसी विश्वास में त्रुटि दिखाई देती है, तो हम इसका स्थान किसी अन्य विश्वास तक जाने की मानसिक क्रिया ही चिंतन है। विश्वास, सत्य हो या असत्य, क्रिया का आधार है, यही जीवन में इसे महत्वपूर्ण बनाता है। न्याय का काम निर्णय या वाक्य के सत्यासत्य की जाँच करना है; इसके लिए यह बात असंगत है कि कोई इसे वास्तव में सत्य मानता है या नहीं।
सत्य के संबंध में दो प्रश्न विचार के योग्य हैं - किसी निर्णय या वाक्य को सत्य कहने में हमारा अभिप्राय क्या होता है।
सत्य और असत्य में भेद करने का मापक साधन क्या है? हमारे ज्ञान के विषयों में प्रमुख ये हैं - हमारी अपनी चेतना अवस्थाएँ, प्राकृतिक पदार्थ, तथा चेतना के अन्य केंद्र, या दूसरों के मन।
मैं कहता हूँ कि मुझे दांत में दर्द हो रहा है। इसका अर्थ क्या है? मेरा अनुभव एक धारा है जिसमें निरंतर गति होती रहती है। मैं कहता हूँ कि धारा का जो भाग वर्तमान में ज्ञात है, दु:ख की अनुभूति उसमें प्रमुख पक्ष है। मेरे लिए यह स्पष्ट अनुभव है और मैं इसमें संदेह कर ही नहीं सकता। मेरे लिए इसे जाँचने को दूसरा मापक न है, न हो सकता है। स्पष्ट बोध से अधिक अधिकार किसी अन्य अनुभव का नहीं।
अन्य चेतनों का हमें स्पष्ट बोध नहीं हो सकता। कुछ लोग कहते हैं कि अनुरूपता के आधार पर हम उनके अस्तित्व में विश्वास करते हैं। परंतु ऐसा अनुमान करने की योग्यता प्राप्त होने से पहले ही बच्चा ऐसा विश्वास करता है। संभवत: वह सभी पदार्थों को अपने नमूने का समझता है, और पीछे कुछ वस्तुओं को अपने असमान पाकर अचेतन समझने लगता है।
निर्णायों के सत्य असत्य का प्रश्न प्राय: प्राकृतिक तथ्यों के संबंध में उठता है। मैं कहता हूँ "मेज पर पुस्तक पड़ी है" इस वाक्य के यथार्थ होने का अर्थ क्या है?
मैं ख्याल करता हूँ कि मुझसे अलग, बाहर, मेज और पुस्तक विद्यमान हैं और उनमें एक विशेष संबंध है। यदि स्थिति वास्तव में ऐसी ही है तो मेरा वाक्य सत्य है; ऐसा न होने की हालत में असत्य है। यह "सत्य का अनुरूपता सिद्धांत" है।
अनुरूपता का सिद्धांत वस्तुवाद से गठित है, और सर्वमान्य सा है। भारत के दर्शन में प्रत्यक्ष को प्रथम प्रमाण का पद दिया गया है। प्रत्यक्ष "इंद्रिय और उसके विषय के सामीप्य का फल है"। यह सामीप्य दो प्रकार से हो सकता है : या तो पदार्थ इंद्रिय के पास आए, या मन इंद्रिय द्वार से गुजरकर पदार्थ तक पहुँचे। दूसरी घटना घटती है और मन विषय का रूप ग्रहण करता है। यह अनुरूपता सिद्धांत का स्पष्ट समर्थन है।
अनुरूपता सिद्धांत के अनुसार हम अपने विचार और बाह्य स्थिति में समानता देखते हैं। अपने विचारों का तो हमें स्पष्ट बोध होता है, पर बाहर की स्थिति को हम कैसे जानते हैं? हम दो विचारों को साथ रखकर उनकी समानता असमानता की बाबत कह सकते हैं, परंतु बाह्य पदार्थ तो हमारी चेतना में प्रविष्ट ही नहीं हो सकता। उसकी तुलना किसी विचार से कैसे करेंगे? अनुरूपतावाद में यह मान लिया जाता है कि बाह्य स्थिति का ज्ञान हमें पहले से ही है। यदि पहले ही ऐसा ज्ञान हो तो निर्णय के सत्य असत्य होने का प्रश्न ही नहीं उठता। हमारी स्थिति ऐसे मनुष्य की स्थिति है जिसने ताजमहल के चित्र देखे हैं, परंतु ताजमहल को नहीं देखा, और जानना चाहता है कि वे चित्र परंतु ताजमहल को नहीं देखा, और जानना चाहता है कि वे चित्र ताजमहल को वास्तविक रूप में दिखाते हैं या नहीं।
अध्यात्मवाद कहता है कि वस्तुवाद के पास इस आपत्ति से बचने का कोई साधन नहीं। सत्य के मापक की खोज स्वयं अनुभव में करनी चाहिए। अनुभव में "आंतरिक अविरोध" सत्य की कसौटी है। अपने पिछले दृष्टांत को फिर लें। "पुस्तक मेज पर पड़ी है", मैं यह कैसे जानता हूँ? आंख ऐसा बताती है। यह एक अनुभव है। परंतु आँख कभी कभी धोखा भी दे देती है। मैं हाथ से पुस्तक और मेज को छूता हूँ। यह दूसरा अनुभव पहले अनुभव की पुष्टि करता है। हाथ से खटकाता हूँ तो जो शब्द सुनाई देता है, वह पुस्तक और मेज से निकला प्रतीत होता है। तीसरा अनुभव पहले दोनों अनुभवों की पुष्टि करता है दूसरे भी पुस्तक को मेज पर पड़ा देखते हैं। अनुरूपता सत्य का चिह्न है, परंतु यह अनुरूपता विचार और बाह्य पदार्थ के दरमियान नहीं, अनुभव के विविध भागों के दरमियान होती है। आकर्षणनियम के अनुसार प्रत्येक पदार्थ अन्य पदार्थों से आकृष्ट होता है, और उन्हें खींचता भी है। इसी तरह सत्य ज्ञान के सभी भाग एक दूसरे पर आश्रित हैं। जो निर्णय इस तरह शेष अनुभव से युक्त हो सकता है, वह सत्य है; जिसमें यह योग्यता नहीं वह असत्य है।
इस विवरण से ऐसा लगता है कि सत्य अनेक सत्य वाक्यों का समुदाय है, और इस समुदाय में प्रत्येक सत्य की अपनी स्वतंत्र स्थिति है। अविरोधवाद इस विचार को स्वीकार नहीं करता। सत्य समुदाय नहीं अपितु समग्र है जिसका तत्व आंशिक सत्यों के रूप को निश्चित करता है। वास्तव में सत्य एक ही है, बहुवचन में सत्यों का वर्णन करना अनुचित है। समूह में कुछ एकांग अलग हो जाए तो दूसरों की स्थिति में भेद नहीं पड़ता। ईंटों के ढेर में से कोई चार ईंटें उठा ले जाए, तो बाकी ईंटों को इसमें आपत्ति नहीं होती। शरीर के एक अंग पर चोट लगे, तो सारा शरीर दुखी होता है। आंशिक सत्यों में हर एक अंश समग्र को किसी पक्ष में दरसाता है, और इस विषय में सभी अंशों का मूल्य एक नहीं होता। अविरोधवाद के अनुसार सत्यों में परिमाण का भेद होता है।
जिन वाक्यों को हम सत्य कहते हैं, वे दो प्रकार के होते हैं- वैज्ञानिक नियम संबंधी और तथ्य संबंधी। "दो और दो चार होते हैं," यदि किसी त्रिकोण के भुज बराबर हों, तो उसके कोण भी बराबर होंगे। - यह वाक्य हर कहीं और सदा सत्य हैं; देश और काल का भेद उनके सत्य होने से असंगत है। "भारत 1947 ई. में स्वाधीन हुआ।" 1947 ई. से पहले यह वाक्य कहा ही नहीं जा सकता था, परंतु अब यह भी सदा के लिए सत्य है।
सत्य का तीसरा सिद्धांत "व्यवहारवाद" या "प्रैग्मेटिज्म" के नाम से प्रसिद्ध है। अपने आधुनिक रूप में यह अमरीका की देन है। वास्तव में व्यवहारवाद कोई सिद्धांत नहीं, एक मनोवृत्ति है जो सामान्य से विशेष को, स्थिरता से परिवर्तन को, चिंतन से क्रिया को अधिक महत्व देती है। इस विचार के प्रसार में चाल्र्स पीअर्स, विलियम जेम्स और जान डियूई का विशेष भाग है। पीअर्स नैयामिक था, जेम्स मनोवैज्ञानिक था, डियूई की अभिरुचि नीति और राजनीति में थी। पीअर्स ने प्रत्ययों के "अर्थ" को स्पष्ट करने में व्यवहारवाद की विधि का प्रयोग किया, जेम्स ने "सत्य का स्वरूप निर्णीत करने में इसे बर्ता, डियूई ने "भद्र" पर इसे लागू किया। इस तरह वे न्याय, सौंदर्यशास्त्र और नीति को अनुभववाद के निकट ले आए।
पीअर्स ने नए विचार को "प्रैग्मेटिस्म" का नाम दिया। उसकी दृढ़ धारणा थी कि दर्शन को विज्ञान के दृष्टिकोण और उसकी विधि को अपनाना चाहिए। दर्शन के लिए सत्य ज्ञान निरपेक्ष या समग्र का दोषरहित ज्ञान है; विज्ञान की दृष्टि में ऐसा ज्ञान मानव बुद्धि के लिए अप्राप्य है। हमे सापेक्ष ज्ञान से संतुष्ट होना चाहिए, यही हमारे लिए काम की वस्तु है। दर्शन का प्रमुख काम स्वीकृत मान्यताओं को सिद्ध करना रहा है, विज्ञान के लिए आविष्कार प्रमुख है। नवीन वैज्ञानिक विधि में आगमन और निगमन दोनों का समन्वय होता है। कुछ उदाहरणों की नींव पर प्रतिज्ञा की जाती है, उसे सत्य मानकर निष्कर्ष निकाले जाते हैं, और अंत में देखा जाता है कि अनुभव इनकी पुष्टि करता है या नहीं। किसी प्रतिज्ञा की ऐसी पुष्टि ही उसकीसत्यता है। प्रत्येक सत्य की स्थिति सामयिक प्रतिज्ञा की स्थिति है। प्राकृतिक नियम भी स्थायी नहीं, वे भी विकासाधीन हैं। आकर्षणयिम का क्षेत्र अब पहले से अधिक विस्तृत है और भविष्य में वर्तमान से भी अधिक विस्तृत हो जाएगा। नियम भी आदतों की तरह पुष्ट होते जाते हैं।
जेम्स ने अमूर्त सत्य को नहीं, अपितु विशेष विश्वासों के सत्य को अपने विवेचन का विषय बनाया। उसके विचारानुसार सत्य कोई स्थायी वस्तु नहीं जिसे देखना ही हमारा काम है, यह तो क्रिया में बनता है। अपनी पुस्तक "व्यवहारवाद" में वह कहता है-
"व्यवहारवाद, मूल रूप में, उन दार्शनिक विवादों को मिटाने का नियम है जो इसके बिना अंतरहित होते। जगत् एक है या अनेक? स्वाधीन है या पराधीन? प्राकृतिक है या आध्यात्मिक? ये विचार ऐसे हैं जिनमें एक या दूसरा सत्य या असत्य हो सकता है, और ऐसे विचारों पर विवादों का कोई अंत नहीं। व्यवहारवाद की विधि इन विषयों के संबंध में यह है कि हम प्रत्येक प्रत्यय का समाधान इसके व्यावहारिक परिणामों के परीक्षण से करें। यदि कोई प्रत्यय दूसरे प्रत्यय के स्थान में सत्य होता, तो इससे किसी मनुष्य के लिए व्यावहारिक भेद क्या पड़ता? यदि कोई व्यावहारिक भेद दिखाई न दे तो व्यवहार में दोनों पक्षांतर एक ही हैं और सारा विवाद व्यर्थ है। जब कोई विवाद गंभीर हो तो हमें यह दिखाई के योग्य होना चाहिए कि दोनों पक्षों में एक या दूसरे के सत्य होने पर कोई व्यावहारिक भेद होता है"।
जेम्स से बहुत पहले इसी भाव को प्रकट करते हुए रामानुज ने कहा था-"व्यवहार योग्यता सत्यम्"।
व्यवहारवाद ज्ञानमीमांसा में उपयोगितावाद है : "जो कुछ विश्वास के संबंध में अपने आपको मूल्यवान् सिद्ध करता है, वह सत्य है। व्यवहारवाद बिना झिझक के यह मान लेता है कि जो विश्वास एक के लिए सत्य है, वह दूसरे के लिए असत्य हो सकता है।
ऊपर कहा गया है कि व्यवहारवाद सामान्य से विशेष को और स्थिरता से परिवर्तन को अधिक महत्व देता है। डियूई की शिक्षा में हम इसे स्पष्ट देखते हैं।
राजनीति में राजतंत्र, शिष्टजनतंत्र और प्रजातंत्र शासनों में भेद किया जाता है। राजतंत्र और शिष्टजनतंत्र अधिक सफल हों, तो भी प्रजातंत्र उनसेअच्छा है, क्योंकि यह व्यक्ति के मूल्य को स्वीकार करता है। नीति में कुछ नियमपालन को और कुछ श्रेय की सिद्धि को लक्ष्य बताते हैं। डियूई के अनुसार दोनों वर्ग एक ही भ्रांति में पड़े हैं; वे विशेष को उचित महत्व नहीं देते। नीति को एक नहीं अनेक नियमों को, एक नहीं अनेक साध्यों को स्वीकार करना चाहिए। उद्देश्य हर हालत में वर्तमान कठिनाई को दूर करना होता है; जो क्रिया इसमें अधिक से अधिक सहायक हो, वही उस स्थिति में सर्वश्रेष्ठ है। कोई मनुष्य कहीं भी स्थित हो, वह अच्छा मनुष्य है यदि वह आगे बढ़ रहा है, बुरा मनुष्य है यदि पीछे हट रहा है। जीवन का एकमात्र लक्ष्य उत्थान या वृद्धि है; पूर्णता नहीं, अपितु पूर्णता की ओर निरंतर गति है।
यह गति ही शिक्षा है, नैतिक जीवन और शिक्षा एक ही वस्तु है। प्रचलित विचार के अनुसार शिक्षाकाल तैयारी का समय है; यह व्यक्ति को पराधीनता से विमुक्त करके स्वाधीन बना देता है। यदि ऐसा ही है, तो शिक्षाकाल की समाप्ति पर शिक्षा की आवश्यकता भी नहीं रहती। डियूई कहता है कि वृद्धि का यत्न तो जीवन के अंत तक जारी रहना चाहिए, सारा जीवन ही शिक्षाकाल है। जो कुछ स्कूलों कालेजों में पढ़ाया जाता है, उसमें साहित्य और भाषाओं के ज्ञान की अपेक्षा विज्ञान को अधिक महत्व मिलना चाहिए। विज्ञान में भी जो भाग पुस्तकों से प्राप्त होता है, उससे अधिक मूल्य उस भाग का है जो विद्यार्थी अपनी क्रिया से सीखता है। मनुष्य का दिमाग का नहीं, क्रिया का अस्त्र है।
[संपादित करें] निष्कर्ष
वास्तव में अनुरूपतावाद, अविरोधवाद और व्यवहारवाद एक ही प्रश्न का उत्तर नहीं। दो प्रश्न उत्तर की माँग करते हैं - सत्य से क्या अभिप्रेत है? सत्य और असत्य में भेद करने की कसौटी क्या है? अनुरूपतावाद पहले प्रश्न का उत्तर देता है; अविरोधवाद और व्यवहारवाद दूसरे प्रश्न का उत्तर देते हैं। जेम्स ने कहा है कि व्यवहार की दृष्टि में जब कोई विश्वास सत्य सिद्ध होता है, तो उसके लिए आवश्यक है कि वह उसी प्रकार के सत्यों से युक्त हो सके। यह धारणा व्यवहार को अविरोधवाद के निकट ले आती है। तीनों विचार एक दूसरे के विरुद्ध नहीं, एक दूसरे के पूरक हैं।
लिथो छपाई
लिथो छपाई (Lithography) पत्थर पर चिकनी वस्तु से लेख लिखकर अथवा डिज़ाइन बनाकर, उसके द्वारा छाप उतारने की कला है। लिथोग्रैफी शब्द यूनानी भाषा के लिथो (पत्थर) एवं ग्रैफी (लिखना) शब्दों के मिलने से बना है। पत्थर के स्थान पर यदि जस्ता, ऐलुमिनियम इत्यादि पर उपर्युक्त विधि से लेख लिखकर या डिज़ाइन बनाकर छापा जाए तो उसे भी लिथोग्रैफी कहेंगे।
लिथोछपाई को सतह या समतल लिखावट (Planographic) प्रक्रम (process) भी कहते हैं। इसमें मुद्रणीय और अमुद्रणीय क्षेत्र एक ही तल पर होते हैं, परंतु डिज़ाइन चिकनी स्याही से बने होने के कारण और बाकी सतह नम रखी जाने के कारण, स्याही-रोलर स्याही को स्याही ग्राही डिज़ाइन पर ही निक्षिप्त कर पाता है। अमुद्रणीय क्षेत्र की नमी, या आर्द्रता, स्याही को प्रतिकर्षित करती है। इस प्रकार लिथोछपाई चिकनाई और पानी के विद्वेष सिद्धांत पर आधारित है। इस प्रक्रम का आविष्कार बेवेरिया में एलॉइस जेनेफ़ेल्डर (Alois Senefelder) ने 6 नवंबर, 1771 ई. को किया था। सौ वर्षों से अधिक काल तक प्रयोग और परख होते रहने के बाद आधुनिक फोटो ऑफ़सेट लिथो छपाई के रूप में उसका विकास हुआ।
लिथो छपाई में आरेखन और मुद्रण दोनों की विधियाँ सन्निहित है। समतल लिखावट मुद्रण द्वारा प्रिंटों (prints) को छापने की दो प्रमुख विधियाँ हैं : स्वलिथोछपाई (autolithography) और ऑफ़सेट फ़ोटोलिथोछपाई। स्वलिथोछपाई नक्शानवीस (draftsman), या कलाकार द्वारा प्रस्तर, धातु की प्लेट, या अंतरण कागज (transfer paper) पर अंकित मूल लेखन, या आरेखन से आरंभ होता है। डिज़ाइन में सर्जक के मन की छाप और कलाकार के व्यक्तिगत स्पर्श की छाप होती है। इस शिल्प के व्यापारिक पक्ष के अनेक विभाग हैं और ऐसे शिल्पी कम होते हैं जो अपने विभाग के अलावा दूसरे विभाग की भी जानकारी रखते हों। अत: सहज कलात्मक प्रेरणाएँ व्यर्थ जाती हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि ऑफसेट लिथोछपाई में कलापक्ष का अभाव होता है, परंतु यह मान लेने की बात है कि इसमें कलापक्ष क्रमश: गौण हो रहा है, खास कर उस स्थिति में जबकि फोटोग्राफी स्वलिथोछपाई का स्थान ले रही है। लिथो छपाई का आरंभ पत्थर से छापने के रूप में हुआ और आज भी उसका महत्व कम नहीं हुआ है, परंतु फ़ोटोग्रॉफसेट को, जो छपाई का परोक्ष प्रक्रम है और जिसमें शीघ्रता, सस्तापन और यथार्थता के लिए छपाई के काम में प्रकाशयांत्रिक (photomechanical) विधियों का उपयोग होता है, त्यागा नहीं जा सकता।
[संपादित करें] वर्णलिथोछपाई और फोटोलिथोछपाई
रंगीन छपाई के लिए, विशेषकर विज्ञापन में, वर्णलिथोछपाई (बिना फोटोग्राफी के) उत्तम विधि है। (1) विभिन्न आकार के उत्कीर्ण (stippled) बिंदुओं से, या (2) दानेदार पत्थर, या प्लेट पर अंकनी (crayon), या खड़िया से आरेख करके और आरेखन के समय खड़िया पर दबाव के बदलाव से प्रभावित दानों का क्षेत्र और उनके टोन की गहराई निर्धारित करके, हाथ की लिथोछपाई में चिकने पत्थर पर रंगों का क्रमस्थापन उत्पन्न किया जात है। चित्रकार यांत्रिक आभा (tint), या छायाकारी माध्यम, या उन सभी विधियों के संयोजन का भी उपयोग कर सकता है, जिनमें फोटोग्राफी, या फोटोग्राफी विधि से निर्मित बिंब भी सम्मिलित हैं।
- अंतरण कागज -
फ़ोटोग्राफी की मदद के बिना लिथोग्रैफिक प्रतिबिंब बनाने का प्राचीनतम प्रक्रम अंतरण कागज है। आज भी अनेक भारतीय और विदेशी लिथोग्रैफिक छपाई के संस्थान धातु की प्लेटो
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