Saturday, January 15, 2011

adhikaar

अधिकार

अधिकार, किसी वस्तु को प्राप्त करने या किसी कार्य को संपादित करने के लिए उपलब्ध कराया गया किसी व्यक्ति की कानूनसम्मत या संविदासम्मत सुविधा, दावा या विशेषाधिकार है। कानून द्वारा प्रदत्त सुविधाएँ अधिकारों की रक्षा करती हैं। दोनों का अस्तित्व एक-दूसरे के बिना संभव नहीं। जहाँ कानून अधिकारों को मान्यता देता है वहाँ इन्हें लागू करने या इनकी अवहेलना पर नियंत्रण स्थापित करने की व्यवस्था भी करता है।


[संपादित करें]अधिकार की अवधारणा और उसका विकास

राजनीतिक और संवैधानिक दृष्टि से अधिकार मानव इतिहास से समान शाश्वत है। प्राचीन काल में परिवार और संपत्ति पर मातृसत्ताक समाज में माँ का तथा पितृसत्ताक समाज में पिता का अधिकार होता था। राजतंत्र के विकास के साथ राजा दैवी अधिकार के सिद्धांतों की सहायता से प्रजा से प्रजा को समस्त अधिकारों से निरस्त कर राष्ट्र विशेष में संप्रभु बन जाने लगा। प्रजा या धार्मिक समूहों के हस्तक्षेप से राजा के सीमित अधिकार की मान्यता प्रचलित हुई। भारत और यूनान के प्राचीन गणराज्यों में जनतंत्र या गणतंत्र की कल्पना की गई, जिससे राजा के अधिकार प्रजा के हाथों में जा पहुँचे एवं कहीं प्रत्यक्ष जनतंत्र से, तो कहीं निर्वाचित प्रतिनिधियों के माध्यम से शासन होने लगा। प्लेटो ने आदर्श नगर राज्यों की जनसंख्या 1050 तो अरस्तु ने 10 हजार निश्चित की। अरस्तू ने अप्रत्यक्ष जनतंत्र की भी व्यवस्था दी। उत्तरी भारत में गणतंत्रों का विशेष प्रचलन हुआ, खासकर बौद्ध युग में। कुरु, लिच्छवि, मल्ल, मगध जैसे अनेक गणतंत्रों का इतिहास में उल्लेख मिलता है। हिंदू राजशास्त्रों ने प्रजा के अधिकारों को संरक्षण प्रदान करने के लिए राजा का प्रमुख कर्तव्य प्रजा का रंजन और रक्षण बताया। प्राचीन काल में शासकों और सामंतों ने जनता के अधिकारों का अपहरण कर दास प्रथा का भी प्रचलन किया जिसके अंतर्गत स्त्री-पुरुषों के क्रय-विक्रय का क्रम शुरू हुआ और बलात् शासकेतर व्यक्तियों एवं समूहों को दास बनाया जाने लगा। भारत में दास प्रथा के विरुद्ध मानवीय अधिकारों के लिए सबसे पहले गौतमबुद्ध ने आवाज उठाई और भिक्षु बनाकर दासों को मुक्ति देने का क्रम चलाया।


आधुनिक जनतांत्रिक अधिकारों की प्राप्ति का संघर्ष इंग्लैंड में 13वीं शती से आरंभ हुआ जिसमें राजा के निरंकुश अधिकारों के विरुद्ध विजय हासिल हुई। 1215 ई. में प्रसिद्ध मैग्ना कार्टा की घोषणा से ब्रिटिश संसद को राजा पर नियंत्रण करने का अधिकार मिला। 1603 से जेम्स प्रथम ने दैवी अधिकार के लिए फिर संघर्ष शुरू किया, किंतु 1688 ई. में गौरवपूर्ण क्रांति ने समस्या को सदा के लिए सुलझा दिया, जिसके पश्चात् इंग्लैंड में संसदीय शासन की स्थापना कर दी गई। 16 दिसंबर, 1889 को ब्रिटिश संसद की अधिकार घोषणा को राजा विलियम तथा रानी मेरी ने स्वीकार कर शासन में जनता के अधिकार को मान्यता दी, तबसे ब्रिटिश संसद के अधिकार बढ़ते ही गए। विश्व में मानव अधिकार की व्यापक गरिमा फ्रांसीसी क्रांति (1789 ई.) से स्थापित हुई। जाँ जैक रूसों के संविदा सिद्धांत से प्रेरित क्रांति के समय संविधान सभा ने यह घोषणा की थी कि संविधान निर्मित होने पर सर्वप्रथम मानव अधिकारों का उल्लेख किया जाएगा। यह घोषणा वास्तव में जार्ज वाशिंगटन के नेतृत्व में अमरीका (संयुक्त राज्य) की स्वतंत्रता की घोषणा (सन् 1778 ई.) के सिद्धांतों से प्रेरित थी। मानव अधिकार की घोषणा के आधार पर समता, स्वतंत्रता एवं बंधुता का कानूनी अधिकार प्राप्त हुआ।


इंग्लैंड के राजनीतिक संघर्ष एवं फ्रांस की क्रांति ने दुनिया में पूँजीवादी जनतंत्रों का रास्ता साफ किया, जिसके फलस्वरूप साम्राज्यवाद एवं नवसाम्राज्यवाद के विस्तार से अनेक राष्ट्रों के मानवीय अधिकारों को छीनकर यूरोप के अलावा सारी दुनिया को गुलाम बनाया गया। विश्व के हो महायुद्ध (1914-18 एवं 1939-45) भी इसी के परिणान हैं। 1848 ई. में जर्मन दार्शनिक कार्ल माक्र्स तथा ब्रिटिश दार्शनिक फ्रैंड़रिक ऐंगेल्स ने मैनिफेस्टो ऑव द कम्युनिस्ट पार्टी लिखकर श्रमिक एवं शोषित वर्ग के अधिकारों की प्राप्ति के लिए संघर्ष की एक नई दिशा दी, जिसके लिए शोषणविहीन तथा वर्गहीन समाज की स्थापना एवं मनुष्य के समान आर्थिक अधिकार मुख्य लक्ष्य निर्धारित किए गए। इन्हीं लक्ष्यों को दृष्टि में रखकर 1917 ई. में रूस में नई क्रांति हुई जिसने राजसत्ता पर श्रमिकों एवं मेहनतकशों के अधिकार के सिद्धांत को मूर्त स्वरूप प्रदान किया, जब कि इस क्रांति ने एक साथ ही समस्त शोषक वर्ग को सदा के लिए सत्ता के अधिकार से च्युत कर दिया। इस क्रांति के पश्चात् संविधान द्वारा नागरिकों को वे अधिकार दिए गए जिनके बारे में मानव इतिहास में कभी सुना भी नहीं गया था। 1936 ई. संविधान के अनुसार तत्कालीन सोवियत संघ में जनता को स्वतंत्रता, समता और बंधुता के अतिरिक्त कार्य प्राप्त करने, कार्य करने के निश्चित और सीमित समय के साथ अवकाश का आनंद प्राप्त करने, बेकारी, वृद्धावस्था, रोग, अयोग्यता का भत्ता तथा बीमा की सुविधा प्राप्त करने, निःशुल्क एवं अनिवार्य प्रारंभिक तथा उच्च शिक्षा प्राप्त करने, ट्रेड यूनियन, सहकारिता संघ, युवक संघटन स्थापित करने, समस्त स्त्रियों को सवेतन चौदह महीने का प्रसूति अवकाश प्राप्त करने और अपनी माँगों की पूर्ति के लिए आंदोलन करने के अधिकार प्रदान किए गए। समाजवादी देशों को छोड़कर ऐसे अधिकार अन्य देशों में नहीं मिल सके हैं। 1947 ई. में राजनीतिक दासता से मुक्ति मिलने पर 26 जनवरी, 1950 ई. से लागू भारतीय संविधान ने भी कतिपय मौलिक अधिकार जनता को दिए हैं किंतु संपत्ति के अधिकार पर आधारित होने के कारण ये उतने व्यापक नहीं हो सके हैं जितने सोवियत संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकार। भारतीय संविधान ने धर्म, प्रजाति, जाति, लिंग के भेदभाव को मिटाकर कानून के समक्ष समता का अधिकार प्रदान किया है। अस्पृश्यता तथा बेगारी का अंत कर दिया है। सरकार की ओर से मिलने वाली उपाधियों का अंत कर दिया है। भाषण, सभा, संगठन, आवागमन की स्वतंत्रता प्रदान की गई है। शोषण के संरक्षण का अधिकार दिया गया है। दैहिक स्वतंत्रता (हैबिएस काप्र्स) का अधिकार दिया गया है जिसके अंतर्गत बिना कारण बताए कोई नागरिक गिरफ्तार नहीं किया जा सकता। गिरफ्तार व्यक्ति को न्यायालय से न्याय पाने का अधिकार होगा। विश्वास के आधार पर धर्म को मानने, प्रचार करने का अधिकार दिया गया है। धर्म, संप्रदाय अथवा भाषा के आधार पर अल्पसंख्यक एवं बहुसंख्यक वर्ग को अपनी रुचि के अनुसार शिक्षा संस्थाएँ स्थापित करने तथा उनकी व्यवस्था करने का अधिकार होगा। संपत्ति रखने, बेचने और खरीदने का अधिकार प्रत्येक नागरिक को दिया गया है। अधिकारों की रक्षा के लिए संवैधानिक उपचार का भी अधिकार दिया गया है। समाजवाद एवं आर्थिक स्वतंत्रता की प्रगति के लिए भारतीय संसद ने 1971-72 में संविधान में 24वाँ, 25वाँ और 26वाँ संशोधन कर संपत्ति के अधिकार को सीमित कर दिया है।


[संपादित करें]वर्तमान स्थिति

विश्व के समस्त देशों के नागरिकों को अभी पूर्ण मानव अधिकार नहीं मिला है। अफ्रीका के अनेक देशों एवं संयुक्त राज्य अमरीका के दक्षिणी राज्यों में अभी भी किसी-न-किसी रूप में दासप्रथा, रंगभेद तथा बेगारी मौजूद हैं। भारत में हरिजनों तथा अनेक परिगणित जातियों को व्यवहार में समता और संपत्ति के अधिकार नहीं मिल सके हैं। दो तिहाई मानव जाति का अभी भी आर्थिक शोषण होता चला आ रहा है। उपनिवेशवाद के कारण एशिया, अफ्रीका तथा लैटिन अमरीका के अनेक अविकसित राष्ट्रों का बड़े साम्राज्यवादी राष्ट्रों द्वारा आर्थिक शोषण हो रहा है। इसी दिशा में मुक्ति तथा राष्ट्रों और नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ सचेष्ट हैं। संयुक्त राष्ट्रसंघ की ओर से प्रति वर्ष 10 दिसंबर को मानव-अधिकार-दिवस मनाया जाता है। सन् 1945 में अपनी स्थापना के समय से ही संयुक्त राष्ट्रसंघ ने मानव अधिकारों की अभिवृद्धि एवं संरक्षण के लिए प्रयास आरंभ किया है। इस निमित्त मानव-अधिकार-आयोग ने अधिकारों की एक विस्तृत रूपरेखा प्रस्तुत की जिस संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 10 दिसंबर, 1948 को स्वीकार किया। तीस अध्यायों के मानव अधिकार घोषणापत्र में उन अधिकारों का उल्लेख है जिन्हें विश्वभर के स्त्री-पुरुष बिना भेदभाव के पाने के अधिकारी हैं। इन अधिकारों में व्यक्ति के जीवन, दैहिक स्वतंत्रता, सुरक्षा एवं स्वाधीनता, दासता से मुक्ति, स्वैच्छिक गिरफ्तारी एवं नजरबंद से मुक्ति, स्वतंत्र एवं निष्पक्ष न्यायाधिकरण के सामने सुनवाई का अधिकार, अपराध प्रमाणित न होने तक निरपराध माने जाने का अधिकार, आवागमन एवं आवास की स्वतंत्रता, किसी देश की राष्ट्रीयता प्राप्त करने का अधिकार, विवाह करने का और परिवार बसाने का अधिकार, संपत्ति रखने का अधिकार, विचार, धर्म, उपासना की स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, शांतिपूर्ण सभा करने की स्वतंत्रता, मतदान करने और सरकार में शामिल होने का अधिकार, सामाजिक स्वतंत्रता का अधिकार, काम पाने का अधिकार, समुचित जीवनस्तर का अधिकार, शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार, समाज के सांस्कृतिक जीवन में सहभागी बनने का अधिकार इत्यादि शामिल हैं। वैकल्पिक रूप से संयुक्त राष्ट्रसंघ अनेक संगठनों एवं संस्थाओं का निर्माण कर धरती पर इन अधिकारों को चरितार्थ करने के लिए प्रयत्नशील है



Duty (from "due," that which is owing, O. Fr. deu, did, past participle of devoir; Lat. debere, debitum; cf. "debt") is a term that conveys a sense of moral commitment to someone or something. The moral commitment is the sort that results in action[citation needed] and it is not a matter of passive feeling or mere recognition. When someone recognizes a duty, that person commits himself/herself to the cause involved without considering the self-interested courses of actions that may have been relevant previously. This is not to suggest that living a life of duty precludes one of the best sorts of lives but duty does involve some sacrifice of immediate self-interest.

Cicero is an early philosopher who acknowledged this possibility. He discusses duty in his work “On Duty." He suggests that duties can come from four different sources:

  1. a result of being human
  2. It is a result of one's particular place in life (your family, your country, your job)
  3. It is a result of one's character
  4. One's own moral expectations for oneself can generate duties

From the root idea of obligation to serve or give something in return, involved in the conception of duty, have sprung various derivative uses of the word; thus it is used of the services performed by a minister of a church, by a soldier, or by any employee or servant.

Many schools of thought have debated the idea of duty. While many assert mankind's duty on their own terms, some philosophers have absolutely rejected a sense of duty




An obligation is a requirement to take some course of action, whether legal or moral. There are also obligations in other normative contexts, such as obligations of etiquette, socialobligations, and possibly in terms of politics, where obligations are requirements which must be fulfilled. These are generally legal obligations, which can incur a penalty for unfulfilment, although certain people are obliged to carry out certain actions for other reasons as well, whether as a tradition or for social reasons. Obligations vary from person to person: for example, a person holding a political office will generally have far more obligations than an average adult citizen, who themselves will have more obligations than a child.[citation needed] Obligations are generally granted in return for an increase in an individual’s rights or power.

The word "obligation" can also designate a written obligation, or such things as bank notes, coins, checks, bonds, stamps, or securities





A nation is a group of people who share culture, ethnicity and language, often possessing or seeking its own independent government.[1] The development and conceptualization of a nation is closely related to the development of modern industrial states and nationalist movements in Europe in the eighteenth and nineteenth centuries,[2] although nationalists would trace nations into the past along uninterrupted lines of historical narrative. Though the idea of nationality and race are often connected, the two are separate concepts, race dealing more with genotypic and phenotypic similarity and clustering, and nationality with the sense of belonging to a culture.

A nation is not necessarily equated with country in that a country is akin to a state which is defined as the political entity within defined borders. Although "nation" is also commonly used in informal discourse as a synonym for state or country, a nation is not identical to a state. Countries where the social concept of "nation" coincides with the political concept of "state" are called nation states




A government is the organization, or agency through which a political unit exercises its authority, controls and administers public policy, and directs and controls the actions of its members or subjects.[1]

Typically, the term "government" refers to the civil government of a sovereign state which can be either local, national, or international. However,commercial, academic, religious, or other formal organizations are also governed by internal bodies. Such bodies may be called boards of directors, managers, or governors or they may be known as the administration (as in schools) or councils of elders (as in forest). The size of governments can vary by region or purpose.

Growth of an organization advances the complexity of its government, therefore small towns or small-to-medium privately operated enterprises will have fewer officials than typically larger organizations such as multinational corporations which tend to have multiple interlocking,hierarchical layers of administration and governance. As complexity increases and the nature of governance becomes more complicated, so does the need for formal policies and procedure

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