Monday, May 10, 2010

मेरे शहर में शराब इफरात है पानी नहीं

सच ही तो है. पानी हमारे शहरी परिदृश्य से ग़ायब हो गया लगता है. पानी के नाम पर आसपास जो दिखता है वो या तो बिसलरी या किंगफ़िशर का रिवर्स ऑस्मोसिस फ़िल्टर्ड, यूवी क्लीयर्ड तथाकथित मिनरल वाटर होता है या फिर एक रुपल्ली का पाऊच. और नहीं तो कोला-पेप्सी-स्प्राइट जैसा कोई पेय.
अब न कहीं छागल दिखता है, न मटका. ऊषा और बजाज के वाटर कूलर पानी को कुछ इस तरह से अभिजात्य रंग में रंग देते हैं कि कितना ही चिल्ड वाटर पी लें प्यास नहीं मिटती.
गांवों में ग़नीमत है कि कहीं हैंडपंप और कहीं कुएँ बचे हैं. मगर कितने दिनों तक? प्लास्टिक की पारदर्शी बोतलें तमाम असलहों समेत वहाँ भी सेंघ लगाने की पूरी तैयारी में हैं.
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व्यंज़ल
मेरे शहर में शराब तो है पानी नहीं
जाने क्यों प्यास बुझाती पानी नहीं


मुल्क के वाशिंदों का हाल है अजब
लहू तो है आँखों में मगर पानी नहीं


ग़ुमान है उन्हें कई समंदर रखते हैं
ये पता नहीं है कि उनमें पानी नहीं


जिस्म जला लिए हैं नीट पी पी कर
विकल्पहीन हैं चूंकि पास पानी नहीं


जाग़ीरें खड़ी कर लीं तुमने बहुत रवि
मगर कहीं हवा नहीं कहीं पानी नहीं

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