Monday, May 10, 2010

lalu ka interview

बीबीसी हिंदी सेवा के विशेष कार्यक्रम 'एक मुलाक़ात' में हम भारत के जाने-माने लोगों की ज़िंदगी के अनछुए पहलुओं से आपको अवगत कराते हैं.
इसी श्रृंखला में हम इस बार आपकी मुलाक़ात करवा रहे हैं बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और मौजूदा रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव से. लालू प्रसाद देश के एक ऐसे करिश्माई नेता हैं जिनके बारे में शायद सबसे ज़्यादा लिखा और सुना जाता है. जो बॉलीवुड में भी उतने ही लोकप्रिय हैं जितने कि पाकिस्तान में.

पेश हैं इस मुलाक़ात के कुछ ख़ास अंश..

सबसे पहले ये बताएं इतनी ज़बर्दस्त लोकप्रियता और अलग-अलग वर्गों में अलग-अलग किस्म की छवि. ये महारत आपने कैसे हासिल की?

देखिए छवि बनाने से नहीं बनती है. देश ही नहीं परदेस में भी लोग मुझे अलग-अलग तरह से देखते हैं. कोई मुझे मजाकिया बोलता है, कोई जोकर बोलता है, कोई ग़रीबों का मसीहा कहता है. लोगों का अपना-अपना नज़रिया है. हाँ मैं खुद को आम लोगों से दूर नहीं रखता. पेट के अंदर जो बात है, जो सच्चाई है, उन बातों को लोगों को बता देता हूँ. इसमें किसी तरह की कोई योजना या बनावटीपन नहीं है.

लेकिन क्या ऐसा नहीं है कि जैसा कि आप सीधे-सादे और बहुत मज़ाकिया दिखते हैं, असल में वैसे हैं नहीं, बल्कि बहुत पारंगत, तेज़ दिमाग, बेहद होशियार और सब समझने वाले हैं. तो इन दोनो में से असली लालू कौन है?

भारत गाँवों का देश है. मेरा जन्म भी गाँव में हुआ और परवरिश भी वहीं हुई. वहाँ से जो संस्कार मिले. उसी के अनुरूप बात करता हूँ.

ख़ासकर जो लोग अनपढ़ हैं उनकी पीड़ा और दर्द अलग होती है. उनका बोलने का, हँसने का अलग तौर तरीक़ा होता है क्योंकि मैं भी उनके बीच से ही आया हूँ इसलिए मैं नकली नहीं बल्कि दोटूक बात करता हूँ. लोगों से बतियाने का ये अंदाज़ मुझे विरासत में मिला है.

लेकिन उदाहरण तो आपने ऐसे दिए थे कि मैं बिहार की सड़कों को हेमामालिनी के गालों जैसा चिकना बना दूँगा?


लखनऊ में चुनाव के दौरान अटलजी ने आनंद लेने के लिए कहा था कि लालू ऐसा बोलता है. किसी को अग़र कोई हल्की बात कहनी है और मजाक उड़ानी है तो लोग वो बात हमारे मुँह में डाल देते हैं.


लालू यादव

ना-ना-ना...देखिए ये बात मेरे मुँह में डाल कर मेरी छवि को नुकसान पहुँचाने के लिए छापी गई थी. लखनऊ में चुनाव के दौरान अटलजी ने आनंद लेने के लिए कहा था कि लालू ऐसा बोलता है. किसी को अग़र कोई हल्की बात कहनी है और मजाक उड़ानी है तो लोग वो बात हमारे मुँह में डाल देते हैं.

जब चश्मा लगाना पड़ा..

आपके ख़िलाफ़ घोटाले के इतने आरोप लगे. आप जेल भी गए, इतने साल ये किस्सा कहानी चला. ये सारा समय कैसे बीता?

देखिए पूरा शरीर जलता रहा. आँख में चश्मा लगाना पड़ा, बहुत पीड़ा हुई. हमारे ग्रह-नक्षत्र या किस्मत में विवाद ही विवाद हैं. हमेशा किसी न किसी विवाद में हमें घसीटा जाता है. कभी मुक़दमे होते हैं और कभी कुछ. जहाँ हमारा नाम आता है विवाद खड़ा हो जाता है. लोग बोलते थे कि 900 करोड़ रुपए का चारा घोटाला हुआ है. सीबीआई ने हम पर भी 40 लाख रुपए के घोटाले का आरोप लगाया था, लेकिन हमें कोर्ट पर पूरी आस्था है और जो फ़ैसला हुआ वो सबके सामने है.

मेरा सवाल असल में ये था कि उन दिनों आपको क्या लगता था यानी आपकी मानसिक हालत क्या थी?

देखिए, सच्चाई, ईमानदारी, नियम-क़ायदे सब हमारे पक्ष में थे. कोर्ट पर हमें पूरी आस्था थी. आरोप लगाने या मीडिया ट्रायल से कुछ नहीं होता. सच्चाई क्या है ये देखना न्यायपालिका का काम है. राजनीति में जो विरोधी हमें ख़त्म होते देखना चाहते थे, वे निराश हुए. इससे मेरा विश्वास सही साबित हुआ है कि भगवान है और इस देश में न्यायपालिका जीवित है.

मीडिया पर आपको विश्वास नहीं है?

ये सही है कि मीडिया हमको खूब कवरेज़ देता है. लेकिन अधिकांश ख़राब कवरेज़ देता है. लेकिन मीडिया में भी सब ख़राब लोग नहीं है. अच्छे-भले लोग भी हैं. मीडिया में भी जात-पाँत है. कई और भी समीकरण हैं. लोग अपना-अपना नज़रिया पेश करते रहते हैं. मीडिया को न्यूज़ देना चाहिए. व्यूज़ नहीं देना चाहिए.

आज मीडिया पर हर चीज का ट्रायल शुरू हो गया है. देश में इतना मीडिया हो गया है कि हालत ये हो गई है कि अब जब कोई न्यूज़ ही नहीं बचती है तो मीडिया ने खोजी पत्रकारिता शुरू कर दी है. बहुत सी बातों को मीडिया को नहीं दिखाना चाहिए जिससे समाज पर बुरा असर पड़ता है.

अब एक दिन मैं देख रहा था कि सेक्स पर एक कार्यक्रम दिखाया जा रहा था. बच्चे भी टेलीविज़न देखते हैं. ये सब ठीक नहीं है.


ये जो ब्यूरोक्रेसी है और जो लोग शीर्ष कुर्सियों पर जमे हुए हैं. उनके काम पर ज़बर्दस्त निगरानी रखी जानी चाहिए. देहात में हम कहते हैं कि ‘लिखतंग के सामने बकतंग काम नहीं करता’.



इस पूरे दौर में जो व्यक्तिगत यातना आपने सही. इससे कोई सबक मिला क्या?

ठीक है. बुरे दौर में इंसान की पहचान होती है कि कौन अच्छा आदमी है और कौन ख़राब. पश्चाताप तो तब होगा न अग़र हमने गलती की होती. जितनी बातें इस दौरान कही गईं अग़र मेरी जगह कोई दूसरा नेता होता तो वो टिकता नहीं, दिल का दौरा पड़ने से मर चुका होता.

आपका भी ब्लड प्रेशर तो बढ़ ही गया होगा?

नहीं ब्लड प्रेशर तो नॉर्मल ही रहा, लेकिन तनाव तो रहा ही. आप सार्वजनिक जीवन में हैं तो ये चिंता तो रहती ही है कि जब ये आरोप लगाया जा रहा है कि लालू 900 करोड़ का चारा खा गया तो लोग क्या सोचेंगे.

तो आपके लिए पूरे प्रकरण की सीख क्या रही?

ये जो ब्यूरोक्रेसी है और जो लोग शीर्ष कुर्सियों पर जमे हुए हैं. उनके काम पर ज़बर्दस्त निगरानी रखी जानी चाहिए. देहात में हम कहते हैं कि ‘लिखतंग के सामने बकतंग काम नहीं करता’. चारा घोटाला मामले में क्या हुआ. पशुपालन विभाग में सब कुछ फाइलों में दर्ज था और जब इसे न्यायपालिका के सामने लाया गया तो सब साफ हो गया.

नया अंदाज़

अच्छा ये बताएँ कि गाँव के लालू, इसके बाद छात्र संघ के अध्यक्ष, फिर मुख्यमंत्री, रेल मंत्री और अब पिछले कुछ महीनों से जो आपने मैनेजमेंट गुरु की नई टोपी पहनी है. कभी घर में बैठे रहते हैं तो हँसी आती है क्या?

नहीं. हँसी नहीं आती है. बात ये है कि भारतीय रेलवे जो लाभांश भी देने की स्थिति में नहीं था. यहाँ तक कि डॉ राकेश मोहन की विशेषज्ञ समिति ने भी कह दिया था कि अगले 25 साल में इसे निजी क्षेत्र में दे दिया जाना चाहिए.




भारतीय रेलवे का नेटवर्क बहुत बड़ा है. 16 लाख लोगों को रोज़गार हासिल है और हर दिन 11 हज़ार यात्री गाड़ी चलाते हैं और करोड़ो यात्रियों को उनकी मंजिल तक पहुँचाते हैं. इसके बावजूद ये घाटे का सौदा था.

मेरा मानना था कि भारतीय रेल तो जर्सी गाय और कमाऊ घोड़ा है. हमने कहा कि छंटनी नहीं की जाएगी. लदान क्षमता को बढ़ाने और ईमानदारी से प्रयास करने से हम भाड़ा बढ़ाए बग़ैर रेलवे को 13 हज़ार करोड़ रुपए के फ़ायदे में ले आए हैं.

माफ़ कीजिएगा. आपके आलोचकों का कहना है कि पहले 25 साल लालू ने खुद को बेवकूफ दिखाते हुए लोगों को बेवकूफ बनाया और अगले 25 साल की योजना अक्लमंद बनकर देश को बेवकूफ बनाने की है?

ऐसे नादान लोगों को मैं चुनौती देता हूँ कि बताएँ कि मैने कैसे लोगों को बेवकूफ बनाया. ये तो खुली किताब है, दस्तावेज है. अब हार्वर्ड, आईआईएम अहमदाबाद और तमाम जगहों से लोग ये जानने के लिए आ रहे हैं कि चमत्कार कैसे हो गया. दुनिया भर में जब भी कभी सुधारों की बात आती है तो घाटे से उबरने के लिए छंटनी की प्रक्रिया अपनाई जाती है. लेकिन बिना छेड़छाड़ किए हमने घाटे के सौदे को फायदे में लाकर दिखाया.

जब छात्र और प्रोफेसर आदि आपके पास आते हैं और इस चमत्कार के पीछे का रहस्य पूछते हैं तो आप उन्हें क्या बताते हैं?

गुर यही है कि ईमानदारी और निष्ठा से हमने अपने नज़रिए को ठीक किया और तमाम कद़म उठाते हुए खामियों को दूर किया. विश्वास कीजिए अभी तो और बड़ी कहानी आगे लिखी जाने वाली है.

सठा तो पठ्ठा

बिहार से आज तक कोई प्रधानमंत्री नहीं बना?

नहीं बना तो क्या. एक बार मैने कह दिया था कि एक दिन हम प्रधानमंत्री बनेंगे तो यूपीए में झंझट हो गया. अब हमने इसे फिलहाल स्थगित कर दिया है. कम से कम दो कार्यकाल तक प्रधानमंत्री बनना हमारे एजेंडे में नहीं है.


दुनिया भर में जब भी कभी सुधारों की बात आती है तो घाटे से उबरने के लिए छंटनी की प्रक्रिया अपनाई जाती है. लेकिन बिना छेड़छाड़ किए हमने घाटे के सौदे को फायदे में लाकर दिखाया.



वैसे भी मैं अपने आपको अभी युवा मानता हूँ. खासकर यादव समुदाय में तो कहा भी जाता है ‘सठा तो पट्ठा’. अभी तो मैं साठ साल का हुआ हूँ इसलिए युवा हूँ.

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह नेक इंसान हैं. हमारी सरकार अगले पाँच साल भी चलेगी. हम सब इसे मिलकर चलाएँगे.

मैने आपकी कई जनसभाएं देखी हैं, आप इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन लेकर जब लोगों के बीच जाते थे तो उन्हें ये भी बताते हैं कि फलाँ बटन दबाने से ऐसी आवाज आएगी ?

मैं लोगों को बताता था कि वोटिंग मशीन में लालटेन यहाँ पर है और ठीक इसके ऊपर हारमोनियम जैसा बटन है. इसे दबाना है, लेकिन कचकचा कर इसे मत दबा देना, नहीं तो मशीन ही टूट जाएगी. बटन दबाने पर अगर ‘पीं’ जैसी आवाज आई तो समझो वोट सही पड़ा है. अगर आवाज नहीं आई तो समझो ‘दाल में काला’ है.

हमने ये तो माना कि आप लोगों तक अपनी बात पहुँचाने में माहिर हैं, लेकिन आपकी नज़र में करिश्माई और लोकप्रिय नेता और कौन है ?

और लोग भी हैं. लेकिन कई लोग हैं जो भाषण देते हैं तो उन्हें पता ही नहीं होता कि वे लोगों से क्या कह रहे हैं. लोग भी उनकी बातों को नहीं समझ पाते. लोगों के मन और मिज़ाज की समझ ज़रूरी है. मैं ये नहीं कहता कि मैं ही अकेला अच्छा वक्ता हूँ. बहुत सारे अच्छे नेता हैं. सोनियाजी भी हैं, अंग्रेजी परिवेश के बावजूद वह हिंदी में बहुत अच्छा भाषण देती हैं.

आपका पसंदीदा गाना?

मैं खुद को आजकल की फ़िल्मों से बहुत दूर रखता हूँ. पटना के हॉल में एक ही फ़िल्म देखी थी. दिलीप कुमार और वैजयंती माला अभिनीत फ़िल्म गंगा-जमुना और वो भी चार आने में. देश की सर्वश्रेष्ठ गायिका लता मंगेशकर और आशा भोसले के गाने भी मुझे बहुत पसंद है.


मैं खुद को आजकल की फ़िल्मों से बहुत दूर रखता हूँ. पटना के हॉल में एक ही फ़िल्म देखी थी. दिलीप कुमार और वैजयंती माला अभिनीत फ़िल्म गंगा-जमुना और वो भी चार आने में.



इसके अलावा ‘मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती’ और ‘जाने वालों जरा मुड़के देखो मुझे मैं भी इंसान हूँ’ भी मुझे पसंद है.

मुझे ‘मकाया रे तोर गुना गौलो न जाला’ जैसे लोकगीत भी बहुत पसंद हैं.

बॉलीवुड में लालू

आपने कहा कि आप टेलीविज़न या फ़िल्मों से दूर रहना चाहते हैं, लेकिन बॉलीवुड में तो आपके कई फैन हैं. महेश भट्ट कहते हैं कि मेरे आदर्श लालू हैं और शेखर सुमन ने तो आपकी नकल कर अपना कैरियर बना लिया?

शेखर सुमन हों या कोई और. हम देखते हैं कि बहुत से लोग मेरे बोलने के अंदाज़ की नकल करने की कोशिश करते हैं.

आपको कैसा लगता है. एक पूरी की पूरी जमात आपकी नकल करने की कोशिश कर रही है और लाखों करोड़ों कमा रही है. आपको रायल्टी की माँग करनी चाहिए ?

हमारी शुभकामनाएं उनके साथ हैं. नकल के लिए हमने किसी पर मुक़दमा नहीं किया. हमें रायल्टी भी नहीं चाहिए. हमारा नाम लेकर ये लोग जिए-खाएँ. देश के लोग इसे पसंद करते हैं. ठीक है लोग हमारा प्रचार करें. हालाँकि कुछ लोग गलत प्रचार भी करते हैं.

अच्छा लालूजी थोड़ा फ्लैशबैक में जाते हैं. आपका बचपन गाँव में ग़रीबी में बीता, फिर यूनीवर्सिटी आए और जयप्रकाश नारायण से जुड़े. कभी सोचा था आप इतने बड़े नेता बनेंगे?


हमारी शुभकामनाएं उनके साथ हैं. नकल के लिए हमने किसी पर मुक़दमा नहीं किया. हमें रायल्टी भी नहीं चाहिए. हमारा नाम लेकर ये लोग जिए-खाएँ



नहीं. कभी नहीं सोचा था. जो हक़ीकत है मैं आपको वो बता रहा हूँ. गाँव में हम छह भाई और दो बहनें थी. पिताजी मामूली किसान थे. गाय और बकरी चराने के लिए हम पिताजी के पीछे-पीछे जाते थे. हमने हर उस चीज का अनुभव किया है जो गाँव में किसान और मजदूर के बेटे को होते हैं.

जाड़े के दिनों में गन्ने के पत्तों को जलाकर आग तापते थे. तो कभी नहीं सोचा था कि फुलवरिया जैसे छोटे से गाँव में मिट्टी के कच्चे घर में पल-बढ़कर और सामंतवादी सोच के लोगों के बीच से उठकर मैं बिहार का मुख्यमंत्री बन जाऊँगा.

ये तो लोकतंत्र का कमाल है. हमारे नेता लोहियाजी कहा करते थे कि वोट का राज होगा तो छोड़ का राज होगा. अग़र वोट का राज नहीं होता तो हम तो आज भी गाय, भैंस, बकरी ही चरा रहे होते.

कोई सोच के कुछ नहीं बनता. बहुत से लोग सोचते हैं कि ये बनेंगे, वो बनेंगे. सो किसी ने कभी नहीं सोचा था और हम भी बन गए और राबड़ी देवी भी बन गईं.

स्टूडेंट्स यूनियन से लेकर मुख्यमंत्री की कुर्सी तक का सफ़र. जयप्रकाश के आंदोलन में भी आप जुड़े रहे, लेकिन क्या आप तब भी ऐसे ही चुटीली बातें किया करते थे या दबे-दबे रहते थे?

मैंने हमेशा बेबाकी से बात की है. इच्छाशक्ति शुरू से ही बहुत मजबूत थी. आंदोलन के दिनों में छात्र-छात्राओं के बीच अपनी बातों को रखना. मीसा में मैं एक साल तक बंद रहा. छपरा से सांसद का चुनाव लड़ने के लिए हथकड़ी पहन कर गया था. इसलिए मैं मानता हूँ कि शुरुआती दिनों में गाँव से पटना आने और फिर मुख्यमंत्री और आज रेलमंत्री के रूप में मुझमें कोई बुनियादी फर्क नहीं आया है. मैं आज भी पहले की तरह अपनी बातों को जनता के सामने रखता हूँ.


मैं मानता हूँ कि शुरुआती दिनों में गाँव से पटना आने और फिर मुख्यमंत्री और आज रेलमंत्री के रूप में मुझमें कोई बुनियादी फर्क नहीं आया है.



परिवार नियोजन पर लालू

लालूजी आपके गाँव के बचपन के दिन और सब कुछ बदल गया, सिवाय एक बात के. आप छह भाई और दो बहन थे और आपके भी नौ बच्चे हैं. आपने ये भी बदलने की क्यों नहीं सोची कि परिवार छोटा रहे?

पहले के जमाने में जहाँ ज़्यादा भाई-बहन होते थे, उसे भाग्यशाली परिवार समझा जाता था. अब परिवार नियोजन की चर्चा ज़्यादा जोरों पर है. देश की जनसंख्या बढ़ रही है और लोगों की चिंता बढ़ी है कि परिवार छोटा होना चाहिए.

आप अपने बच्चों से कहते हैं कि उनका परिवार छोटा होना चाहिए?

बच्चे खुद-ब-खुद तय करेंगे. वैसे किस बच्चे में प्रतिभा निकल जाए, इसका कोई ठिकाना है. आजकल देखते हैं जिनका एक बेटा होता है और वह दुर्भाग्य से किसी दुर्घटना में मारा गया तो पूरा का पूरा परिवार तबाह हो जाता है. और क्या फर्क पड़ गया. जब जनसंख्या कम थी, तब लोगों को खाना नहीं मिलता था. दाल-चावल, सब्जी नहीं मिलती थी, लेकिन आज जनसंख्या बढ़ने के बावजूद खाने-पीने की कितनी किस्में हो गई हैं.

आपने हेमामालिनी के गालों वाली बात को झूठा कह दिया था, लेकिन एक और नारा था ‘जब तक रहेगा समोसे में आलू, तब तक रहेगा बिहार में लालू’. ये नारा तो ठीक था?

ये नारे हमने नहीं दिए थे. हमारे समर्थकों अथवा शुभचिंतकों ने ये नारा दिया था.

जब पटना यूनीवर्सिटी में पढ़ते थे तब तक राबड़ी देवी से शादी हो चुकी थी?

1973 में हमारी शादी और 1974 में गौना हुआ. जब गौना कराकर आए तो आंदोलन के दौरान असेंबली के गेट पर पुलिस ने पिटाई कर दी और फिर जेल भेज दिया. इसके बाद लोगों ने राबड़ी देवी को कोसना शुरू कर दिया और कहा कि ये कुलक्षणी महिला है. घर आई तो बबुआ चला गया जेल.

तब मैने राबड़ी देवी से कहा कि यहाँ से निकलने के बाद तो अब सरकार ही बनानी है.

इश्क

राबड़ी देवी से पहला इश्क था या पहले भी किसी को दिल दिया था?

हम दिल देने वाले आदमी नहीं है. ये सब काम हमने कभी नहीं किए. राबड़ी देवी से जब मेरी सगाई की बात हुई तो मैने तो उन्हें देखा भी नहीं था. आजकल तो लड़की देखने के लिए पूरा परिवार जुटता है. फोटो मँगाए जाते हैं. लड़का-लड़की मिलते हैं. सवाल-जवाब होते हैं.

हमने तो सिंदूरदान भी किया तो पता नहीं था कि सिंदूर कहाँ भर रहे हैं. यही तो हमारी संस्कृति थी. फिर हमसे क्यों कोई प्यार करता. हम गाँव-गँवई थे. फ़कीर के घर पैदा हुए थे.

पर अब तो हम पुरानी पीढ़ी के देहाती हो गए हैं. अब तो इंटरनेट आ गया है. एसएमएस हो गया है. सच कहूँ तो मुझे तो आज भी एसएमएस करना नहीं आता. बल्कि अगर मोबाइल पर फोन आ गया तो सुन तो लेता हूँ, लेकिन इसे ऑफ़ करना मुझे नहीं आता.


हमने तो सिंदूरदान भी किया तो पता नहीं था कि सिंदूर कहाँ भर रहे हैं. यही तो हमारी संस्कृति थी. फिर हमसे क्यों कोई प्यार करता. हम गाँव-गँवई थे. फ़कीर के घर पैदा हुए थे.



राबड़ी देवी आपका और बच्चों का बहुत ख्याल रखती हैं. मुख्यमंत्री रहने के बाद भी उन्होंने गृहणी की भूमिका को नहीं छोड़ा. आप क्या मानते हैं?

वाकई ये मेरे राजनीतिक कैरियर के लिए बहुत अच्छा रहा कि ग्रामीण पृष्ठभूमि से आई राबड़ी देवी से मेरी शादी हुई. आजकल तो महिलाएं अपने पति को मिनट-मिनट में फोन करतीं हैं कि कहाँ हो, क्या कर रहे हो.

तो आपको राबड़ी देवी ने पूरी छूट दे रखी है कि कहीं भी जाइए या कभी भी आइए?

नहीं. राबड़ी देवी हमको जानती है कि ये गड़बड़ आदमी नहीं है. न उनको मोबाइल से फोन करना आता है और न हमको.

अब आदमी अपना काम-धंधा रोज़गार करेगा कि मोबाइल पर मिनट-मिनट का हिसाब देता रहेगा. ये फालतू का काम है.

कभी आपको ये भी लगा कि राबड़ी देवी आपसे अधिक लोकप्रिय हो रही हैं?

अगर राबड़ी देवी लोकप्रिय हो रही हैं तब भी मेरा ही नाम तो हो रहा है. मैं उनसे ईर्ष्या नहीं करता. वो कभी बाज़ार नहीं जातीं. न ही कोई डिमांड करती हैं. हम 500 रूपए की साड़ी को दस हज़ार का बताते हैं तो बहुत खुश होती हैं.

कभी साथ में फ़िल्म देखी है?

नहीं कभी नहीं. वो साथ में फ़िल्म देखने जाती ही नहीं हैं. टेलीविज़न पर ही फ़िल्म देखती हैं और टीवी देखते-देखते सो जाती हैं. वैसे भी आजकल जैसी फ़िल्में बनाई जा रही हैं वो परिवार के साथ बैठकर नहीं देखी जा सकती.

शाकाहारी जीवन

सुनते हैं कि आपको खाना बनाने का शौक है. शाम को रसोई में बैठते हैं और तरकारी छीलते हैं और कई मंत्रियों से भी तरकारी छिलवाते हैं?

नहीं मंत्री लोगों से तरकारी नहीं छिलवाते. हम विशुद्ध शाकाहारी हो गए हैं. पहले तरह-तरह से मछली, मटन और चिकन बनाते थे. फिर एक दिन स्वप्न में भगवान शिव ने मांसाहार छोड़ने के लिए कहा. मैने उनकी मूर्ति के आगे कान पकड़कर कसम खाई कि मांसाहार नहीं खाऊँगा.

सच में सपना आया था आपको? कब?

सचमुच में. करीब चार साल पहले सपना आया था. जब मैं जेल में था तो मैने पूजा-पाठ छोड़ दिया था. हालाँकि स्वाद पर कंट्रोल करना आसान काम नहीं है. लेकिन मैने नियंत्रण किया और अब चोखा, चावल, दाल, भिंडी आदि शाकाहारी भोजन खाता है.

कभी तो मन करता होगा कि कुछ कवाब आदि?

नहीं. जब भगवान शिव के आगे शपथ ले ली है तो कभी इच्छा नहीं होती. जब छोड़ दिया तो छोड़ दिया.

घर में और किसी को तो नहीं छुड़वाया?

नहीं. बच्चे खाते हैं. हाँ, एक बेटे ने छोड़ दिया है.

किसने? जो क्रिकेटर है?

नहीं क्रिकेटर तो तेजस्वी है. वो अंडर-19 में दिल्ली का कप्तान है अभी विशाखापत्तनम में है और फिर मुंबई जा रहा है. वह राजनीति में नहीं आएगा. वो तो क्रिकेट के प्रति पूरी तरह समर्पित है.

अभी आपकी पसंदीदा अभिनेता-अभिनेत्री कौन हैं?

शाहरुख़ ख़ान और एक वो लड़की जिसकी शादी होने वाली है....ऐश्वर्या राय.
पुराने लोगों में अमिताभ बच्चन भी पसंद हैं.

शाहरुख की कोई फ़िल्म देखी है क्या ?

नहीं फ़िल्म नहीं. टीवी स्क्रीन पर नाच-गाना और फ़िल्म आती रहती है तो देख लेता हूँ.


एक दिन स्वप्न में भगवान शिव ने मांसाहार छोड़ने के लिए कहा. मैने उनकी मूर्ति के आगे कान पकड़कर कसम खाई कि मांसाहार नहीं खाऊँगा.



आप पर तो एक फ़िल्म भी बन गई पद्मश्री लालू प्रसाद यादव ?

हाँ, इस फ़िल्म को देखा ही नहीं, उसमें तो हमने आखिरी सीन भी किया है. फ़िल्म ठीक ही लगी.

फ़िल्मों में काम करेंगे ?

नहीं. कभी नहीं. सवाल ही नहीं होता. फ़िल्म वाले तो खुद राजनीति में आ रहे हैं. सब राजनीति में आना चाहते हैं तो फिर मैं क्यों.

अच्छा एक बात और सुनी थी कि दस साल पहले आप विदेश गए थे और इसके बाद सरकार चली गई. उसके बाद आप कई साल विदेश नहीं गए. लेकिन अभी आप हाल ही में फिर विदेश गए थे ?

वो तो मैं अमरीका गया था. वहाँ मैने भाषण दिया था कि जो अमरीका आता है. वह स्वदेश लौटने पर भूतपूर्व हो जाता है. इस बार हम अमरीका नहीं गए थे और यूरोपीय देशों के दौरे पर था.

अगर इस बार भी मैं अमरीका जाता तो फिर भूतपूर्व हो जाता. यूरोप के बारे में ऐसा नहीं है.

लोग आपके व्यक्तित्व में जो रंगीनी देखते हैं, उसका क्या राज है ?

अब लोकलाइज़ेशन गया. ग्लोबलाइज़ेशन के दौर में दुनिया गाँव के रूप में तब्दील हो गई है. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, इंटरनेट और एक से बढ़कर एक तकनीकी से दुनिया सिमट गई है. हर आदमी एक-दूसरे को देख रहा है. कहाँ क्या हो रहा है. कौन व्यक्ति क्या कर रहा है.

जब हम पाकिस्तान गए तो पता चला कि इंटरनेट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के ज़रिए वहाँ लोग मुझे पहले से ही जानते हैं. वो लोग चर्चा कर रहे थे कि किस तरह लालू प्रसाद और राबड़ी देवी ग़रीबी और अभाव के परिवेश से निकलकर सत्ता के शीर्ष पर पहुँचे.

('एक मुलाक़ात' कार्यक्रम बीबीसी हिंदी डॉटकॉम के अलावा, बीबीसी हिंदी – मीडियम वेव 212 मीटर बैंड पर और शॉर्टवेव 19, 25, 41 और 49 मीटर बैंड पर - रविवार भारतीय समयानुसार रात आठ बजे प्रसारित होता है.)

No comments:

Post a Comment